Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
यह सिद्ध हो जाने पर भी कि शुद्धात्मा के कर्मबंध नहीं होता है, कर्मबंध सर्वथा अनादि नहीं है, किन्तु संतान की अपेक्षा अनादि है । जैसे अंकुर बोज पूर्वक होने से सादि है, किन्तु संतान की अपेक्षा अनादि है। कहा भी है
'ययांकुरो बीजपूर्वकः स च सन्तानापेक्षया अनादि इति । सर्वार्थसिद्धि
यदि संतान की अपेक्षा भी जीव और कर्म का बंध अनादि न माना जाय तो वर्तमानकाल में भी जीव और कर्म का बंध सिद्ध नहीं हो सकता। कहा भी है'जीवकम्माणं अणादिओ बंधो त्ति कथं णव्वदे ? वटुमाणकाले उवलन्भमाणजीवकम्मबंधण्ण हाणुववत्तीवो।'
( जयधवल पु० १ पृ० ५६ ) अर्थ-जीव और कर्मों का अनादिकालीन संबंध है, यह कैसे जाना जाता है ? यदि जीव का कर्मों के साथ अनादिकालीन संबंध स्वीकार न किया जाय तो वर्तमानकाल में जो जीव और कर्मों का सम्बन्ध उपलब्ध होता है वह बन नहीं सकता है । इस अन्यथानुपपत्ति से जीव और कर्मों का अनादिकाल से संबंध है, यह जाना जाता है ।
इसी बात को श्री पूज्यपादाचार्य ने सर्वार्थ सिद्धि में इसप्रकार कहा है
'अनादिसम्बन्ध साविसम्बन्धे चेति । कार्यकारण-भावसन्तत्या अनादिसम्बन्धे, विशेषापेक्षया साविसम्बन्धे च बीजवृक्षवत् ।'
अर्थात-जीव और कर्मों का अनादिसम्बन्ध भी है और सादिसम्बन्ध भी है। कार्यकारणभाव की परम्परा की अपेक्षा अनादिसम्बन्ध है और विशेष को अपेक्षा सादिसंबंध है। यथा बीज और वृक्ष का।
बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज अनादिकाल से चले आ रहे हैं, किन्तु बीज के बिना वृक्ष नहीं होता और वृक्ष के बिना बीज नहीं होता। इस अपेक्षा से प्रत्येक बीज और वृक्ष सादि व सहेतुक हैं। इसीप्रकार जीव परिणमन से द्रव्यकर्म बंध और कर्मोदय से जीव-परिणाम अनादिकाल से चले आ रहे हैं, किन्तु कोई भी जीव का विकारी परिणाम कर्मोदय के बिना नहीं होता और कोई भी कर्मबंध जीव के परिणाम बिना नहीं होता। इसप्रकार प्रत्येक कर्मबंध व जीव का विकारीपरिणाम सहेतुक व सादि है, किन्तु संतान परंपरा की अपेक्षा अनादि है। यदि किसी भी कर्मबंध को अनादि और अहेतुक मान लिया जाय तो उसके अविनाश का प्रसंग पाजायगा, किन्तु किसी भी जीव के साथ कोई भी कर्म ७० कोडाकोड़ी सागर से पूर्व का बंधा हुमा नहीं पाया जाता और कर्म स्वमुख या परमुखरूप से फल देकर निर्जरा को अर्थात् विनाश को प्राप्त हो जाता है, कहा भी है
'कम्म पि सहेउअंतविणासष्णहाणुववत्तीदो णव्वदे। णच कम्मविणासो असिद्धो; बाल-जोवण-रायादि पज्जायाणं विणासण्णहाणुववत्तीए तम्विणाससिद्धीवो। कम्मकट्टिमं किण्ण जायदे ? ण; अकट्टिमस्स विणासाणुवव. तीवो । तम्हा कम्मेण कट्टिमेण चेव होदव्वं । ( जयधवल पु० १ पृ. ५६.५७ )
अर्थ-यदि कर्मों को अहेतुक माना जायगा तो उनका विनाश बन नहीं सकता है, इस अन्यथानुपपत्ति के बल से कर्म भी सहेतुक हैं यह जाना जाता है। यदि कहा जाय कि कर्मों का विनाश किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कर्मों के कार्यभूत बाल, यौवन और राजादि पर्यायों का विनाश, कर्मों का विनाश हए बिना बन नहीं सकता। इसलिए कर्मों का विनाश सिद्ध है। कर्म अकृत्रिम भी नहीं हैं, क्योंकि प्रकृत्रिम पदार्थ का विनाश नहीं बन सकता, इसलिए कर्मों को कृत्रिम ही होना चाहिए । आप्तपरीक्षा में भी कहा है
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