Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
इन आर्षवाक्यों से सिद्ध है कि मंदकषायरूप विशुद्ध परिणामों में ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति सम्भव है। इसलिये सम्यक्त्वउत्पत्ति में विशुद्धपरिणाम भी एक कारण है। अन्यायरूप प्रवृत्ति तथा अभक्ष्य मनुष्यों के सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति संभव नहीं है। जिन जीवों को शरीर से इतना मोह है कि श लिये अशुद्ध औषधि का सेवन करते हैं बाजार की बनी हुई दही प्रादि वस्तु का सेवन करते हैं किसी प्रकार का त्याग नहीं है वे सम्यग्दष्टि कैसे हो सकते हैं ? सम्यग्दृष्टि के अन्याय और अभक्ष्य दोनों का त्याग होता है।
-प्. ग. 23-9-65/IX/ अ. पन्नालाल सम्यक्त्व प्रकृति का कार्य प्रादि मोहोदय होने पर भावमोह से अपरिणत जीव के बन्धाभाव कैसे ?
शंका-श्री प्रवचनसार गाथा ४५ जयसेनस्वामी की टीका 'द्रव्यमोहोवये सति शुद्धात्मभाव-बलेन भावमोहेन न परिणमति तवा बन्धो न भवति ।' इसका जयधवल पु० ३ पृ० २४५ के कथन से विरोध मालूम होता है। स्पष्टीकरण करें।
समाधान-मिथ्यात्वप्रकृति कर्म के द्रव्यका उदय दो प्रकार से होता है। अर्थात् मिथ्यात्व प्रकृति का स्वमुख ( निज यानी मिथ्यात्व ) से उदय होता है या ( परप्रकृतिरूप ) परमुख से उदय होता है। यदि स्वमुख उदय है तो मिथ्यात्वरूप फल देगा। यदि स्तिबुकसंक्रमण द्वारा परमुख अर्थात् सम्यमिथ्यात्व या सम्यक्त्व प्रकृतिरूप उदय में प्राता है तो उन प्रकृतिरूप फल देगा, किन्तु स्वरूप से या पररूप से फल दिये बिना कोई भी कर्मप्रकर्मभाव को प्राप्त नहीं होता अर्थात् नहीं झड़ता। यह पागम का मूल सिद्धांत है जिसको जयधवल पु० ३ पृ० २४५ पर कहा गया है ।
मिथ्यात्वप्रकृति का मिथ्यात्वरूप से उदय मिथ्यादृष्टिजीव के होता है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्म की उदयव्युच्छित्ति मिथ्यात्वगुणस्थान में कही गई है ( गोम्मटसार कर्मकांड गाथा २६५ ) । मिथ्याइष्टिजीव के शुद्धात्मभावना संभव नहीं है । चार अनन्तानुबन्धीकषाय और तीन दर्शनमोह इन सात प्रकृतियों के उपशम या क्षय होने पर अथवा क्षयोपशम होने पर (चार अनन्तानुबन्धीकषाय और मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व इन छहप्रकृतियों का पररूप से उदय होने पर और दर्शनमोह को सम्यक्त्वप्रकृति का स्वमुख उदय होने पर ) शुद्धात्मभावना होती है। कहा भी है'यदि वह व्यवहार मोक्षमार्गी भव्य मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशम क्षय या क्षयोपशम से शुद्धात्मा को उपादेय मानकर वर्तन करता है तब उसे अवश्य मोक्ष होगा। यदि वह सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम नहीं कर सकता तो शुद्धात्मा ही उपादेय है इसरूप भी वर्तन नहीं कर सकता तब उसे कदापि मोक्ष नहीं हो सकता। इसका भी यही कारण है कि सात प्रकृतियों के उपशम क्षय या क्षयोपशम के अभाव होने पर अनन्तज्ञानादिस्वरूप आत्मा ही उपादेय है ऐसा वर्तन नहीं करता, क्योंकि यह अवश्य है कि जो कोई अनन्तज्ञानादिस्वरूप प्रात्मा को उपादेय मानकर श्रद्धान करता है उसके सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम अवश्यमेव विद्यमान है और वह अवश्य भव्य है। जिसके पूर्व में कहे प्रमाण शुद्धात्मा ही उपादेय हैं ऐसा श्रद्धान नहीं, उसके सात प्रकृतियों का उपशमादिक भी नहीं है ऐसा जानना योग्य है। इसलिये यह मिथ्याइष्टि ही है।' समयसार गाथा २७७ पर श्री जयसेनाचार्य की टीका ।
प्रवचनसार गाथा ४५ की टीका में "द्रव्य-मोहोदये सति यदि शुद्धात्म-भावना-बलेन भावमोहेन न परिण. मति तदा बन्धो न भवति" का अभिप्राय यह है कि शुद्धात्मभावना के बल से मिथ्यात्वप्रकृति व मिश्रप्रकृति का दृष्य यदि स्वमुख से उदय न आकर स्तिबुकसंक्रमण द्वारा पररूप से उदय में आवे अर्थात सम्यक्त्वप्रकृतिरूप उदय में आवे तो सम्यक्त्वप्रकृतिरूप द्रव्यमोह के उदय में यह सामर्थ्य नहीं कि जीव उसके उदय के निमित्त से भावमोह अर्थात
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