Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १११५
ये ते व्रतनियमानु धारयंतः, शीलानि तपश्चरणं च कुर्वाणा अपि मोक्षं न लभते । कस्मादितिचेत् ? येन कारणेन पूर्वोक्त भवज्ञानाभावात् परमार्थबाह्यास्तेन कारखेन ते भवंत्यज्ञानिनः ।"
जो त्रिगुप्तिरूप समाधि लक्षण जिसका ऐसे भेदविज्ञान से रहित हैं वे व्रत व नियम को धारण करने पर भी तथा शील व तपश्चरण को करते हुए भी मोक्ष को प्राप्त नहीं होते क्योंकि उनके पूर्वोक्त ( त्रिगुप्तिरूप समाधि लक्षणवाला भेदविज्ञान का अभाव है । उक्त भेदविज्ञान के अभाव के कारण वे परमार्थ बाह्य हैं इसलिये वे अज्ञानी हैं ।
यहाँ पर भी श्री जयसेनाचार्य ने त्रिगुप्तिरूप समाधि श्रथवा निर्विकल्पसमाधि से रहित को प्रज्ञानी कहा है उसके तप को साक्षात् मोक्ष का साधन नहीं बतलाया है ।
इतना ही नहीं, उनके तप को बालतप और व्रत को बालव्रत कहा है
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"परमात्मस्वभावे स्थिता वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरता पुण्यास्तपोधनानिर्वाणं प्राप्नुवंति लभंते इत्यर्थः । परमात्मस्वरूपे अस्थितो रहितो यस्तपश्चरणं करोति व्रतादिकं च धारयति तत्सर्वं बालतपश्चरणं बालव्रतं ब्रुवंति कथयंति के ते ? सर्वज्ञाः कस्मात् ? इति चेत् पुण्यपापोक्यजनितसमस्तेन्द्रिय सुखदुःखाधिकारपरिहारपरिणतामेवरत्नत्रयलक्षणेन विशिष्टभेवज्ञानेन रहितत्वाद् इति । "
परमात्मस्वभाव में स्थित रहनेवाले अर्थात् वीतराग स्वसंवेदनज्ञान में लीन मुनि तपोधन ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं । जो परमात्मस्वभाव में स्थित नहीं हैं । ( वीतराग स्वसंवेदनज्ञान में लीन नहीं हैं) समस्त इन्द्रियजति सुख-दुःख के अधिकार से रहित अभेदरत्नत्रय ( निर्विकल्पसमाधि ) लक्षणवाले विशिष्ट भेदविज्ञान से रहित होने के कारण, उनका तप करना व व्रत धारण करना वह सब बालतप व बालव्रत है, ऐसा सर्वज्ञ ने कहा है-
श्री जयसेनाचार्य की दृष्टि में जो वीतरागनिर्विकल्पसमाधि से रहित है वह अज्ञानी ( ज्ञान बिन ) है और उसका तप बालतप है । इसी दृष्टि से श्री जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार में इसप्रकार कहा है
"अथपरमागमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वानां भवरत्नत्रयरूपाणां मेलापकेऽपि यदभेवरत्नत्रयात्मकं निविकल्प. समाधिलक्षणमात्मज्ञानं निश्चयेन तदेव मुक्तिकारणमिति प्रतिपादयति । निविकल्प समाधिरूप निश्चय रत्नत्रयात्मकविशिष्टभेदज्ञानाभावादज्ञानी जीवो यत्कर्म क्षपयति भवशतसहस्रकोटिभिः, तत्कर्म ज्ञानी जीवस्त्रिगुप्तिगुप्तः सन् क्षपयत्युच्छ्वासमा खेति । तदाथा - बहिविषये परमागमाभ्यासबलेन यत्सम्यक्परिज्ञानं तथैवश्रद्धानं व्रताद्यनुष्ठानं चेति त्रयं तत् त्रयाधारेणोत्पन्न सिद्धजीवविषये सम्यक्परिज्ञानं ।
श्रद्धानं तद्गुणस्मरणानुकूल मनुष्ठानंचेति त्रयं तत्त्रयाधारेणोत्पन्न विशदाखंड कज्ञानाकारे स्वशुद्धात्मनि परिच्छित्तिरूपं सविकरूपज्ञानं स्वशुद्धात्मोपावेयभूत रुचि विकल्परूपं सम्यग्दर्शनम् तत्रैवात्मनि रागाविविकल्पनिवृत्तिरूपं सविकल्पचारित्रमिति त्रयम् । तत् त्रयप्रसादेनोत्पन्न यनिविकल्पसमाधिरूपं निश्चयरत्नत्रयलक्षणं विशिष्टस्वसंवेदनज्ञानं तदभावावज्ञानी जीवो बहुभवकोटिभिर्यत्कर्म क्षपयंति तत्कर्मज्ञानी जीवो पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् त्रिगुप्तिगुप्तः सम्नुच्छ्वासमात्रेण लीलयैव क्षपयतीति ।"
आगे कहते हैं कि परमागम ज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा संयमीपना इन भेदरूप रत्नत्रय के मिलाप होने पर भी जो अभेदरत्नत्रयस्वरूप निर्विकल्पसमाधिमय आत्मज्ञान वही निश्चय से मोक्ष का कारण है । निर्विकल्पसमाधिरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक विशिष्ट भेदज्ञान के अभाव के कारण जो जीव अज्ञानी है वह जितने कर्मों को एकलाख
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