Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
"रागादिपरिणाम एवात्मनः कर्म, एवं पुण्यपापद्वं तम् । रागपरिणामस्यैवात्मा कर्त्ता तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मनः कर्म सः एव पुण्यपाप तं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्त्ता तस्योपादाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनयः । उभावण्येतौ स्तः, शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीयमानत्वात् । किन्त्वत्र निश्चयनयः साधकतमत्वादुपात्तः साध्यस्य शुद्धत्वेन द्रव्यस्य शुद्धत्वद्योतकत्वनिश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धत्व द्योतको व्यवहारनयः ॥ १८९ ।। " प्रवचनसार |
११५४ ]
यहाँ पर रागादि परिणामों को आत्मा के कर्म और आत्मा उन रागादि का कर्त्ता आदि है ऐसा कथन करनेवाले नय को शुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाला निश्चयनय कहा है । पौगलिक कर्म आत्मा के कर्म और आत्मा उन पौद्गलिक कर्मों का कर्त्ता आदि है ऐसा कथन करनेवाले नय को अशुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाला व्यवहारनय कहा है ।
यहाँ पर शुद्धद्रव्य व निश्चयनय तथा अशुद्धद्रव्य व व्यवहारनय ये शब्द किस अभिप्राय से प्रयोग किये गये हैं, इसको समझने के लिये अध्यात्मनयों के स्वरूप का ज्ञान होना अत्यन्त श्रावश्यक है । अध्यात्मनयों का कथन इसप्रकार है
"पुनरप्यध्यात्मभाषया नया उच्यन्ते । तावन्मूलनयौ द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । तत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो, व्यवहारो भेदविषयः । तत्र निश्चयो द्विविधः शुद्ध निश्चयोऽशुद्ध निश्चयश्च । तत्र निरुपाधिकगुणगुण्यमेव विषयकः शुद्धनिश्चयो यथा केवलज्ञानादयो जीव इति । सोपाधिकविषयोऽशुद्ध निश्चयो यथा मतिज्ञानादयो जीव इति । व्यवहारो द्विविधः सद्भूतव्यवहारोऽसद्भूतव्यवहारश्च तत्र क वस्तुविषयः सद्भूतव्यवहारः । भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूत व्यवहारः । "
अर्थ – फिर भी अध्यात्मभाषा से नयों का कथन करते हैं । नयों के दो मूल भेद हैं, एक निश्चयनय और दूसरा व्यवहारनय । निश्चयनय का विषय अभेद है और व्यवहारनय का विषय भेद है । निश्चयतय दो प्रकार का
१. शुद्ध निश्चयनय, २ . अशुद्ध निश्चयनय । उनमें से जो नय कर्मजनित रागादिविकार से रहित गुण-गुरणी को प्रभेदरूप से ग्रहण करता है वह शुद्ध निश्चयनय है । जैसे केवलज्ञानादिस्वरूप जीव है । जो नय कर्मजनित रागादि विकारसहित गुण और गुणी को अभेदरूप से ग्रहण करता है वह अशुद्ध निश्चयनय है । जैसे मतिज्ञानादिस्वरूप जीव है व्यवहारनय दो प्रकार का है । १. सद्भूतव्यवहारनय, २ श्रसद्भूतव्यवहारनय । एक वस्तु को विषय करनेवाला सद्भूतव्यवहारनय है । भिन्न वस्तुनों को विषय करनेवाला असद्भूतव्यवहारनय है ।
प्रवचनसार गाथा १८९ की टीका में जो श्रात्मा को रागादि परिणामों का कर्त्ता और रागादि परिणामों को कर्म कहा गया है, वह एक ही वस्तु में कर्ता कर्म के भेदरूप से कथन है अतः वह सद्भूतव्यवहारनय का कथन है । पौगलिक आत्मा के कर्म और आत्मा पौद्गलिक कर्मों का कर्त्ता है, यह कथन असद्भूत व्यवहार का है, क्योंकि पुद्गल और आत्मा ये दो भिन्न वस्तु हैं। शुद्ध निश्चयनय का विषय तो रागादि विकारी भावों से रहित शुद्ध आत्मा है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने तथा उनके टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने निश्चय और व्यवहार इन दो ही शब्दों का प्रयोग किया है । भेद प्रति-भेदों का निर्देश नहीं किया है । जहाँ पर शुद्ध निश्चयनय को निश्चय कहा गया है, वहाँ पर शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय को व्यवहार कह दिया गया है। जहाँ पर असद्भूतव्यवहारनय को व्यवहार कहा गया है, वहाँ पर असद्भूतव्यवहार की अपेक्षा सद्भूतव्यवहारनय को निश्चय कहा गया है ।
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