Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
परिणदि जेण दव्वं तकालं तम्मयं ति पणतं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुण्यन्वो ॥८॥ जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो।
सुद्धण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भावो ॥९॥ द्रव्य जिसकाल में जिसपर्याय से परिणमन करता है अर्थात् जिसपर्याय को व्याप्त करता है उसकाल में वह दव्य उसका रूप है ऐसा जिनेन्द्र द्वारा कहा गया है। इसलिये धर्मपर्याय को प्राप्त आत्मा को धर्मात्मा जानना
शुभपर्याय से परिणमन करता है अर्थात् शुभपर्याय को प्राप्त करता है, तब वह जीव स्वयं शुभ हो जाता है। वही जीव जब अशुभपर्याय से परिणमन करता है अर्थात् अशुभपर्याय को प्राप्त करता है तब वह जीव स्वयं प्रशभ हो जाता है। जब वही जीव शुद्धभाव से परिणमन करता है अर्थात् शुद्धपर्याय को व्याप्त करके रहता है तब वह जीव स्वयं शुद्ध हो जाता है, क्योंकि जीव परिणमन स्वभाववाला है। इन तीनों अवस्थाओं में रहनेवाला जो सामान्य आत्मद्रव्य है वह द्रव्यदृष्टि का विषय है। "तात द्रव्य दृष्टि करि एक दशा है. पर्यायष्टि
र अनेक अवस्था हो है, ऐसा मानना योग्य है। सो शुद्ध-अशुद्धअवस्था पर्याय है। इस पर्याय अपेक्षा ( संसारी व सिद्ध में ) समानता मानिए सो यहु मिथ्यादृष्टि है। तातें आपका द्रव्य पर्यायरूप अवलोकेगा। द्रव्यकरि सामान्य स्वरूप अवलोकना, पर्यायकरि विशेष अवधारना। ऐसे ही चितवन किए सम्यग्दृष्टि हो है। जात सांचा अवलोके बिना सम्यग्दृष्टि कैसे नाम पावे” ( मो. मा. प्र.)
श्री गौतमगणधर प्रथमोपशमसम्यक्त्व को उत्पन्न करनेवाले जीव की योग्यता का कथन इसप्र करते हैं
अवसातो कम्हि उवसामेदि । चदुसु वि गदीसु उवसामेवि । चदुसु वि गदीसु उवसातो पंचिदिएसु उबसामेदि, णो एइंदिय विलिवियेसु । पंचिदिएसु उवसातो सण्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीस् । सग्णीसु उवसातो गमोवक्कतिएस उवसामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गम्भोवक्कतिएसु उवसातो पज्जत्तएसु उवसामेदि जो अपज्जत्तएस । पज्जत्तएस उवसातो संखेज्जवस्साउमेसु वि उवसामेदि, असंखेज्जवस्साउगेस वि ॥ धवल पु. ६ पृ. २३८
अर्थ-दर्शनमोहनीयकर्म को उपशमाता हुआ यह जीव कहाँ उपशमाता है ? चारों ही गतियों में आपणमाता है। चारों ही गतियों में उपशमाता हा पंचेन्द्रियों में उपशमाता है, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में नहीं अपमाता है। पंचेन्द्रियों में उपशमाता हुआ संज्ञियों में उपशमाता है, असंज्ञियों में नहीं उपशमाता। संजियों में उपशमाता हुआ गर्भोपक्रान्तिकों (गर्भजजीवों ) में उपशमाता है, सम्मूच्छिमों में नहीं गर्भोपक्रान्तिकों में उपशमाता हआ पर्याप्तकों में उपशमाता है, अपर्याप्तकों में नहीं, पर्याप्तकों में उपशमाता हुआ संख्यातवर्ष की प्रायवाले जीवों में भी उपशमाता है और असंख्यातवर्ष की आयुवाले जीवों में भी उपशमाता है। अर्थात् उपशमसम्यक्त्व उत्पन्न करता है।
गणधर ने सम्यक्त्वोत्पत्ति का यह सब कथन पर्यायदृष्टि से किया है । 'पर्यायदृष्टि मिथ्याष्टि' यदि यह सिद्धान्त होता तो गणधर महाराज पर्यायष्टि से क्यों कथन करते ? श्री गुणधराचार्य कषायपाहुड में कहते हैं--
सम्वणिरय भवरणेस दीव-समुद्दे गुह जोदिस विमाणे । अभिजोग्ग - अभिजोग्गे उवसामो होइ बोद्धब्वो॥ सागारे पढवगो णिटुवगो मज्झिमो य भजियव्वो। जोगे अण्णदरम्हिय जहण्णगो तेउलेस्साए ॥ [क. पा. ४३० व ४३२ ]
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