Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ११५१
सामायिक पाठ में अपने दोषों की पर्यायदृष्टि से निम्नप्रकार प्रालोचना करनेवाला मिथ्यादृष्टि नहीं हो सकता वह तो सम्यग्दृष्टि है -
हा हा! मैं दुठ अपराधी, उस जीवन राशि विराधी । थावर की जतन न कीनी, उर में करना नहीं लीनो ॥ एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगम स्वभावः।
बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः॥ सामायिकपाठ के इस श्लोक में यह नहीं कहा गया कि द्रव्यदृष्टि सो सम्यग्दृष्टि और पर्यायदृष्टि सो मिथ्यादृष्टि । यहाँ पर यह बतलाया गया है कि मेरी आत्मा एक है और सदा शाश्वत है। यह द्रव्यदृष्टि से कथन है। मेरी आत्मा निर्मल और साधिगम है. यह स्वभावदष्टि से कथन है। कर्मजनित प्रौपाधिकभाव मेरे स्वभाव नहीं हैं और नाशवान हैं यह विभावपर्यायदृष्टि से कथन है ।
यहाँ पर द्रव्यदृष्टि से आत्मा सदा शाश्वत अर्थात् अनादि-अनन्त बतलाया गया है। प्रात्मा अनादिकाल से कर्मों से बंधी हुई है अतः शुद्ध नहीं है। अतः द्रव्याथिकनय का विषय शुद्ध या अशुद्धात्मा नहीं है, किन्तु शुद्ध व अशुद्ध विशेषणों रहित सामान्य आत्मा है । श्री देवसेन आचार्य ने आलाप पद्धति में कहा भी है- .
"निजनिजप्रदेशसमूहेरखण्डवृत्या स्वभाव विभाव पर्यायान् द्रवति द्रोष्यति अदुद्रवदिति द्रव्यम् ।"
जो अपने-अपने प्रदेशसमूह के द्वारा अखण्डपने से अपनी-अपनी स्वभाव-विभावपर्यायों को प्राप्त होता है, होवेगा और हो चुका है, वह द्रव्य है ।
यदि द्रव्यदृष्टि का विषय शुद्धद्रव्य माना जाय तो वह विभावपर्यायों को प्राप्त नहीं हो सकता। अतः द्रव्यदृष्टि का विषय, शुद्धाशुद्ध विशेषणों से रहित सामान्य प्रात्मा है ।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी प्रवचनसार गाथा १० को टीका में 'ऊर्ध्वतासामान्यलक्षणे द्रव्ये' शब्दों द्वारा द्रव्य का लक्षण ऊर्ध्वतासामान्य बतलाया है ।
'परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मृविव स्थासादिषु ।' परीक्षामुख
पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहनेवाले द्रव्य को ऊर्वता सामान्य कहते हैं। जैसे स्थास, कोश, कुशूल, घट आदि पर्यायों में मिट्टी रहती है।
यदि द्रव्यदृष्टि के विषयभूत आत्मद्रव्य के साथ शुद्ध विशेषण लगा दिया जाये तो वह अशुद्धपर्यायों में नहीं रह सकेगा, किन्तु संसारी अशुद्धपर्याय में आत्मद्रव्य रहता है। अतः शुद्धाशुद्ध विशेषणों से रहित सामान्य आत्मा द्रव्यदृष्टि का विषय है।
'सामान्यनयेन हारस्रग्दामसूत्रद्रव्यापि ।' प्रवचनसार परिशिष्ट
सामान्यदृष्टि अर्थात् द्रव्यदृष्टि से आत्मा सवं पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है जैसे मोती की माला का डोरा माला के काले, पीले, शुक्ल वर्ण वाले सब दानों में व्याप्त होकर रहता है ।
यह सामान्य प्रात्मा जब शुद्धपर्याय को व्याप्त करके रहता है तब शुद्धपर्याय से तन्मय होने के कारण शुद्धात्मद्रव्य कहलाता है। जब अशुद्धपर्याय को व्याप्त करके रहता है, तब प्रशूद्धपर्याय से तन्मय होने के कारण अशुद्ध आत्मद्रव्य कहलाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार में कहा भी है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org