Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
"कर्मोदयसामान्यापेक्षोऽसिद्धः औवधिकः ।" सर्वार्थसिद्धि २६ ।
अर्थ - कर्मोदय सामान्य की अपेक्षा से प्रसिद्धत्वभाव होता है, इसलिये औदयिक है ।
मोक्षशास्त्र अध्याय १० सूत्र ४ में भी सिद्धभगवान के क्षायिकसिद्धत्व भाव का उल्लेख है, किन्तु उपर्युक्त आठ भावों में भी नहीं गिनाया है ।
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इष्ट छत्तीसी आदि में जो आठ गुणों का कथन है वह भी देशामर्शक है । इन प्राठ के अतिरिक्त अन्य भी अनन्त गुण सिद्ध भगवान में पाये जाते हैं, जैसे क्षायिकचारित्र सिद्धत्व, ऊर्ध्वगमन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग आदि ।
श्री वीरसेनाचार्य प्राचीन गाथाओं को उद्धृत करते हुए कहते हैं—
"एक्स्स कम्मस्स खएण सिद्धाणमेसो गुणो समुत्पणो त्ति जाणावणटुमेदाओ गाहाओ एत्थ परूविज्जति
मिच्छत्त कसायासंजमेहि जस्सोदएण परिणमइ । जीवो तस्सेव खयात्तव्विवरीदे गुणे लहइ ॥७॥
विरियोवभोग भोगे वाले लाभे जदुदयदो विग्धं । पंचविहलद्धि जुत्तो तक्कम्मखया हवे सिद्धो ॥ ११॥
अर्थ - इस कर्म के क्षय से सिद्धों के यह गुण उत्पन्न हुप्रा है, इस बात का ज्ञान कराने के लिये ये गाथायें यहाँ प्ररूपित की जाती हैं
जिस मोहनीयकर्मोदय से जीव मिध्यात्व, कषाय और असंयमरूप से परिणमन करता है, उसी मोहनीयक्षय से इनके विपरीत गुणों को प्रर्थात् सम्यक्त्व अकषाय और संयम को प्राप्त कर लेता है ॥ ७ ॥
जिस अन्तरायकर्म के उदय से जीव के वीर्य, उपभोग, भोग, दान और लाभ में विघ्न उत्पन्न होता है, उसी कर्म के क्षय से सिद्ध पंचविध लब्धि से संयुक्त होते हैं ॥। ११ ॥
इन वाक्यों से सिद्ध भगवान में क्षायिकचारित्र और क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिक उपभोग, क्षायिकभोग सिद्ध हो जाते हैं । इन प्रार्षगाथाओं का अन्य ग्रन्थों से विरोध भी नहीं है, क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व में क्षायिकचारित्र का प्रोर क्षायिकवीयं में क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग और क्षायिकउपभोग का अन्तभव हो जाता है ।
गोम्मटसार जीवकांड में सिद्धभगवान के सिद्ध गति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व और अनाहारक इन पाँच मार्गणात्रों का तो उल्लेख किया है, किन्तु संयम आदि मार्गणा का निषेध किया है इसका कारण यह नहीं है कि सिद्धभगवान में क्षायिकचारित्र नहीं होता, किन्तु इसका कारण निम्नप्रकार है
द्वादशाङ्ग में गतिमागंणा के नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति, देवगति और सिद्धगति ऐसे पाँच भेद किये ! वह सूत्र निम्न प्रकार है
'आवेसेण गदिया खुवावेण अस्थि णिरयगदी, तिरिक्खगदी, मणुसगढी, देवगदी, सिद्धगदी, चेदि ॥ २४ ॥ । ' [ ष. खं. जीव. सत्प्र ]
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