Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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११२० ]
[ प० रतनचन्द जैन मुख्तार
समाधान - एक जीवद्रव्य में 'प्रमेयत्व' 'वस्तुत्व' 'अगुरुलघुत्व' 'अमूर्तस्व' 'जीवत्व' 'चेतनत्व' 'अस्तित्व' आदि अनेक धर्म हैं । प्रत्येक धर्म का लक्षण भिन्न है । अतः भिन्न-भिन्न गुणों की अपेक्षा से एक ही द्रव्य को 'आत्मा' 'प्राणी' 'सत्व' 'भूत' 'जीव' आदि अनेक संज्ञाएँ दी गई हैं । भिन्न धर्मों की दृष्टि से ही सिद्ध भगवान की 'सहस्रनाम स्तोत्र' में एक हजार नामों द्वारा स्तुति की गई है। अतः 'जीवत्व' धर्म की अपेक्षा से जो द्रव्य 'जीव' है वह ही द्रव्य अन्य धर्मो की अपेक्षा से प्रजीव है । यदि अन्य धर्मों की अपेक्षा से भी उस द्रव्य को जीव स्वीकार किया जावेगा तो अन्य धर्मं भी 'जीवत्व' धर्मरूप हो जाने से संकरदोष का प्रसंग प्राजायगा अथवा अन्य धर्मों के अभाव का प्रसंग श्राजायगा । और 'अस्तित्व' आदि अन्य धर्मों के प्रभाव में द्रव्य के प्रभाव का प्रसंग आजायगा । अतः एक ही आत्मा कथंचित् जीव है और कथंचित् प्रजीव है अर्थात् जीव-अजीव स्वरूप है । श्री अकलंकदेव ने स्वरूपसम्बोधन में कहा भी है
प्रमेयत्वादिभिर्ध में रचिदात्मा चिदात्मकः । ज्ञानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मकः ॥ ३ ॥
अर्थात् - प्रमेयत्वादिक धर्मों की प्रपेक्षा से वह परमात्मा अचेतनरूप है और ज्ञानदर्शन की अपेक्षा से चेतनरूप भी है । दोनों अपेक्षाओं से चेतन-अचेतन स्वरूप है । इसीप्रकार आत्मद्रव्य जीव भी है और प्रजीव भी है ।
सिद्धभगवान कथंचित् सुखी भी हैं और कथंचित् सुखी नहीं भी हैं। प्रतीन्द्रिय आत्मिक सुख की अपेक्षा सिद्ध भगवान सुखी हैं, किन्तु इन्द्रियजनित सुख से रहित होने के कारण वे ही सिद्ध भगवान सुखी नहीं भी हैं । कहा भी है
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जस्सोवएण जीवो सुहं व दुक्खं व दुविहमखुभवई । तरसोदयक्खएण दु सुह दुक्ख विवज्जिओ होई ॥
अर्थात् -जिसके उदय से जीव सुख और दुःख इन दोनों का अनुभव करता है, उसके उदय का क्षय होने से वह सुख और दुःख दोनों से रहित हो जाता है ।
सिद्धभगवान मुक्त भी हैं और प्रमुक्त भी हैं। यदि सर्वथा मुक्त माना जायगा तो ज्ञान प्रादि से भी मुक्त हो जाने के कारण द्रव्य के अभाव का प्रसंग आजायगा और यदि सर्वथा अमुक्त माना जावे तो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भी मुक्त न होने के कारण 'सिद्धत्व' के अभाव का प्रसंग आ जायगा । अतः सिद्ध भगवान कथंचित् मुक्त कथंचित् अमुक्त हैं । कहा भी है
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मुक्तामुक्तैकरूपो यः कर्मभिः संविदादिना ।
अक्षयं परमात्मानं ज्ञानमूर्तिं नमामि तम् ॥ १ ॥ स्वरूप संबोधन
मंगलाचरण करते हुए आचार्य श्री अकलंकमट्ट कहते हैं कि जो अविनश्वर ज्ञानमूर्ति परमात्मा ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों से, रागादिक भावकर्मों से व शरीर प्रादि नोकर्मों से मुक्त है और सम्यग्ज्ञान आदि स्वाभाविकगुणों से मुक्त है उस परमानंदमय परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।
इसीप्रकार किसी अपेक्षा नियति ( क्रमबद्ध पर्याय) और किसी अपेक्षा से अनियंति (अक्रमबद्ध पर्याय ) है ।
अनेकान्त खिचड़ीवाद नहीं है जैसा कि शास्त्रीजी ने कहा है । अनेकान्त वस्तुस्वरूप है । वस्तुस्वरूप को खिचड़ीवाद कहना शास्त्रीजी को कहीं तक शोभा देता है। जिसप्रकार पीलिया रोग वाले को सफेद वस्तु भी पीली
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