Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार । बारहवेंगुणस्थान में पूर्ण वीतरागक्षायिकचारित्र हो जाने पर भी मुक्तिकाल में जो विभिन्नता पाई जाती है उसमें वीतरागपरिणामों की हीनाधिकता कारण नहीं है। किन्तु मुक्तिकाल की विभिन्नता का कारण मनुष्यायु का शेष स्थितिकाल है।
शंका-मोक्ष का साक्षात् कारण क्या है ?
समाधान - मोक्ष का साक्षात् कारण निश्चयनय से चौदहवें गुणस्थान के अन्तिमसमय का रत्नत्रय है, किन्तु व्यवहारनय से उससे पूर्व का रत्नत्रय भी मोक्ष का कारण है; स्याद्वादियों को इसमें कोई विवाद नहीं है। श्री विद्यानन्द आचार्य ने कहा भी है
रत्नत्रितयरूपेणायोगकेवलिनोंतिमेक्षणे विवतंते ह्य तदबाध्यं निश्चितानयात् ॥ १४ ॥ व्यवहारनयाश्रित्या स्वेतत्प्रागेव कारणम् ।
मोक्षस्येति विवादेन पर्याप्तम् तत्त्ववेविनाम् ॥ ९५ ॥ ( श्लो. वा. ११) "जेयपदार्थाः प्रतिक्षणं मङ्गत्रयेण परिणमन्ति तथा ज्ञानमपि परिच्छित्यपेक्षया भङ्गात्रयेण परिणमति।"
[प्रवचनसार पृ० २५ रायचन प्रथमाला ] अर्थ-ज्ञेयपदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तीनरूप से परिणमन करते हैं उसी के अनुसार अर्थात् ज्ञेयों के परिणमन को जानने की अपेक्षा से ज्ञान भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीनरूप परिणमन करता है।
येन येनोत्पादन्ययध्रौव्यरूपेण प्रतिक्षणं जेयपदार्थाः परिणमन्ति तत्परिच्छित्याकारेणानिहितवृत्या सिद्धज्ञानमपि परिणमति । वृहदव्यसंग्रह गाथा १४ टीका।
अर्थ-ज्ञेयपदार्थ अपने जिस-जिस उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप से प्रतिसमय परिणमते हैं उन-उन के जाननेरूप आकार से निरिच्छुकवृत्ति से ( बिना इच्छा के ) सिद्धों का ज्ञान भी परिणमता है ।
"ण च गाणविसेसद्वारेण उपज्जमाणस्स केवलणाणंसस्स केवलणाणत्तं फिट्टवि, पमेयवसेण परियत्तमाणमित-जीवणाणंसाणं पि केवल-णाणत्ताभावप्पसंगादो।"ज.ध.पू.११.५१ ।
. अर्थात-यदि केवलज्ञान के अंश मतिज्ञानादि ज्ञान विशेषरूप से उत्पन्न होते हैं, इसलिये उनमें केवलमानव नहीं माना जा सकता है तो प्रमेय के वश से सिद्धजीवों के भी ज्ञानांशों में परिवर्तन देखा जाता है. अत: उन मंशों में भी केवलज्ञानत्व नहीं बनेगा।
पदार्थों के परिणमन के आधार से केवलज्ञान का परिणमन होता है इसीलिये केवलज्ञाम को पदार्थों की सहायता की आवश्यकता है इसके अतिरिक्त इन्द्रियादि को सहायता की भावश्यकता नहीं है। इसी बात को धी वीरसेनस्वामी ने कहा है
"आत्मार्थध्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम् ।" ज. ध पु. १ पृ. २३ ।
उपयुक्त सर्वज्ञवाणी के विरुद्ध जो अन्यमतों की तरह केवलज्ञान के आधीन पदार्थों का परिणमन मानता है वह सम्यम्दष्टि नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वज्ञवाणी पर उसकी श्रद्धा नहीं है।
-जं. ग. 15-4-65/29-4-65/VII/m...
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