Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ११२३
अर्थ-पाठसमय अधिक छह महिने के भीतर निरन्तर क्षपकश्रेणी के योग्य आठसमय होते हैं। साधुपुरुषों के लिये भाषग्रंथ ही चक्षु हैं । उसी के आधार पर कुछ कहा जा सकता है मात्र मन को कल्पनाओं पर आर्षवाक्यों का विरोध नहीं होना चाहिये ।
-जं. ग. 27-12-65/VIII/ र. ला. जैन ६ मास ८ समय में ६०८ या ५६२ जीव मोक्ष जाते हैं शंका-६०८ जीवों के ६ महिने ८ समय में नियम से मोक्ष में जाने और इतने ही जीवों का नित्य निगोद से निकलने का कथन कहाँ पाया जाता है ? क्या यह संख्या निश्चित है या इसमें हीन अधिकता भी हो सकती है ?
समाधान-श्री ज० ध० पु० ४ पृ० १०० पर कहा है कि छह महीना आठसमय में छहसौआठ जीव जाते हैं और उतने ही जीव नित्यनिगोद से निकलते हैं। क्योंकि प्राय के अनुसार व्यय होता है।
"आयाणुसारिवयत्तादो। अठुत्तरछस्सवजीवेसु चदुगदिणिगोदेहितो णिवाणं गवेसु णिच्चणिगोदेहितो चदुगदिणिगोवेसु एत्तिया चेव जीवा असमयाहियछम्मासंतरेण पविस्संति त्ति परमगुरुवदेसादो।"
ज० ध० पु० ४ पृ. १०० किन्तु श्री यतिवृषभाचार्य के मतानुसार ५९२ जीव ६ महीना आठसमय में मोक्ष जाते हैं।
तीदसमयाण संखे पणसयवाणउविरुवसंग्रणि ।
अउसमयाधिय छम्मासय भजिदं णिव्वदा सम्वे ।।४।२९६०॥ (ति०५०) अर्थ-अतीतकाल के समयों की संख्या को पांचसौ बानवें रूपों से गुणित करके उसमें आठ समय अधिक छहमासों के समयों का भाग देने पर लब्धराशि प्रमाण सब मुक्तजीवों की संख्या है।
यह तो निश्चित है कि छह महीने आठसमय में ६०८ या ५६२ जीव नित्यनिगोद से निकलकर व्यवहारराशि में आवेंगे किन्तु, यह निश्चित नहीं है कि विवक्षित छह महीना आठ समय में अमुक-अमुक जीव नित्यनिगोद से निकलेंगे और न इसप्रकार का कथन आर्षग्रन्थों में पाया जाता है।
-जं. ग. 4-1-68/VII/ प्रां. कु. बड़जात्या
संहनन मोक्ष में साधक शंका-यदि संहनन की कमीवाले को वैराग्य आ जाता है। तो उसको मोक्ष क्यों नहीं होता।
समाधान-सब प्राणी सुख की इच्छा करते हैं। वह सुख स्पष्टतया मोक्ष में है, वह मोक्ष सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रय के सिद्ध होने पर होता है । वह रत्नत्रय दिगम्बरसाधु के होता है। उक्त साधू की स्थिति शरीर के निमित्त होती है। लोक में मोक्ष के कारणीभूत जिस रत्नत्रय की स्तुति की जाती है
१. सर्वो वाञ्छति सौख्यमेव तनुभृत्तन्मोस एव स्फुटम् ।
दृष्ट्यादिवय एव सिध्यति स तन्नियन्थ एव स्थितम् । तवृत्तिर्वपुषोऽस्य वृत्तिरशनातहीयते श्रावकः, कालेक्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवीप्रायस्ततोवर्तते ॥८[पदमनन्दिपविशति अ.७]
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