Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
करोड़भव के द्वारा क्षय करता है, त्रिगुप्ति से गुप्त ज्ञानी जीव उतने कर्मों को उच्छ्वासमात्र में क्षय कर देता है। तद्यथा-परमागम के अभ्यास के बल से बाह्य पदार्थों का जो सम्यग्ज्ञान होता है तथा उन्हीं का जो श्रद्धान होता है वत आदिरूप चारित्र पाला जाता है, इन तीनरूप में रत्नत्रय के आधार से सिद्ध परमात्मा के स्वरूप में सम्यग्ज्ञानश्रद्धान और उनके गुणस्मरण अनुकूल चारित्र होता है। इन तीनों के आधार से, निर्मल-अखंड-एक ज्ञानाकार निज शवात्मा में जाननेरूप सविकल्पज्ञान तथा शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है 'ऐसी रुचि सो सविकल्परूप सम्यग्दर्शन
और इसी आत्मस्वरूप में रागादि विकल्परहित ऐसा सविकल्पचारित्र उत्पन्न होता है। इस सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र हमाद से निर्विकल्पसमाधिरूप निश्चयरत्नत्रय लक्षणवाला विशिष्ट स्वसंवेदनज्ञान उत्पन्न होता है। इस निर्विकल्पसमाधिरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक विशिष्ट स्वसंवेदनज्ञान के प्रभाव के कारण अज्ञानीजीव करोडोंभव के द्वारा जिसकर्म का क्षय करता है, पूर्वोक्त ज्ञानगुण के सद्भाव के कारण त्रिगुप्ति में गुप्त ज्ञानी जीव उसकर्म को लीलामात्र से उच्छवासमात्र में क्षय कर देता है।"
असंयतसम्यग्दृष्टि से असंख्यातगुणीनिर्जरा अणुव्रती श्रावक के होती है अर्थात् असंख्यातबार सम्यग्दर्शन को पसा करने से असंयत के जितनी कर्मों की निर्जरा होती है, उतने कर्मों की निर्जरा सम्यग्दृष्टि एकबार अणवत धारण करने से कर देता है। इसीप्रकार असंख्यातबार अणुव्रत को धारण करने से सम्यग्दृष्टि जितनी निर्जरा करता है उतनी कर्मनिर्जरा उस सम्यग्दृष्टि के एकबार महाव्रत धारण करने से हो जाती है। अर्थात श्रावक से असंख्यातगणीनिर्जरा महाव्रती के होती है। असंख्यातबार महाव्रत धारण करने में जितनी कर्मनिर्जरा होती है उतनी कर्मनिर्जरा एक उच्छ्वासमात्र में निर्विकल्पसमाधि अर्थात् श्रेणी में हो जाती है। अर्थात् निर्विकल्पसमाधि से रहित महाव्रती के असंख्यातगुणी निर्जरा निर्विकल्पसमाधि में होती है।
लगातार करोड़ोंभव तक मिथ्यादष्टि के भी कुतप संभव नहीं है। कुतप के प्रभाव से देवायु का बध होता है। एक मनुष्यभव में कुतप के पश्चात् मरकर देव होगा और देवों में कुतप संभव नहीं है। देवगति से चयकर मनुष्य हो तो कुतप संभव हो सकता है यदि अन्यगति में चला गया तो वहां पर भी कुतप संभव नहीं है । मनुष्य के भी बचपन में कुतप सम्भव नहीं है । करोड़ोंभव तक मनुष्य मरकर मनुष्य ही होता रहे ऐसा होना भी कठिन है। अत: मिथ्यादृष्टि के भी लगातार करोड़ोंभव तक कुतप संभव नहीं है बीच-बीच में व्युच्छेद होगा ही। एक जीव असंख्यातबार सम्यग्दर्शन धारण कर सकता है तथा असंख्यातबार अणुव्रत धारण कर सकता है। असंयतसम्यग्दृष्टि और श्रावक के निर्विकल्पसमाधि नहीं हो सकती है। अतः असंयतसम्यग्दृष्टि या श्रावक के तप के साथ जितनी कमनिर्जरा होती है उससे असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा निर्विकल्पसमाधि में उच्छवासमात्र में हो जाती है। अथवा प्रसंख्यातभवों में सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करने से या असंख्यातभवों में प्रणुव्रत को धारण करके तप से जितनी कों की निर्जरा होती है उतनी निर्जरा निर्विकल्पसमाधि में त्रिगुप्ति के द्वारा उच्छ्वासमात्र में हो जाती है। इससे सिद्धान्त में कोई बाधा नहीं आती है।
-जे. ग. 3-5-73/VII/ र. ला. जैन दान से मिथ्यात्वी के निर्जरा नहीं होती शंका-साधारण संज्ञो पंचेन्द्रियपर्याप्त मिथ्यात्वीजीव वर्षपृथक्त्व की आयु हो जाने पर यदि विशुद्ध परिणामों से दान देवे तो क्या उसके अविपाक द्रव्यनिर्जरा नहीं होगी ?
समाधान-आत्मा के कम से कम ऐसे विशुद्ध परिणाम जो सम्यक्त्व को उत्पन्न कर देवें, उन विशुद्ध परिणामों के द्वारा जो द्रव्यकर्म निर्जीर्णरस होकर खिरते हैं, उन द्रव्यकर्मों के झड़ने को अविपाक द्रव्यनिर्जरा कहा
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