Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १११३
यह निर्जरा मात्र भावपूर्वक भक्ति के काल में ही होती है । व्रतधारियों के प्रतिसमय अविपाकनिर्जरा
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होती
श्रविपाक निर्जरा संवरपूर्वक होती है, संवर के बिना नहीं होती है-
संवरेण बिना साधोर्नास्ति पातक-निर्जरा । नूतनाम्भः प्रवेशोऽस्ति सरसो रिक्तता कुतः || ६ || योगसार
संबर के बिना अविपाकनिर्जरा नहीं बनती। जब नये जल का प्रवेश कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती ।
"मोक्षकारणं या संवरपूविका संव ग्राह्या ।" ( द्रव्यसंग्रह गा० ३६ टीका )
मोक्ष के प्रकरण में जो संवरपूर्वक निर्जरा है उसी को ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि वही मोक्ष का
कारण है ।
रहा है तब सरोवर की रिक्तता
एक देशव्रत पंचमगुणस्थान में होते हैं, प्रतः पाँचवें गुणस्थान से प्रतिसमय होने वाली अविपाकनिर्जरा प्रारम्भ हो जाती है । मात्र एक अन्तर्मुहूर्त तक होने वाली अविपाक निर्जरा सातिशयमिध्यादृष्टि व असंयत सम्यग्दृष्टि के भी होती है ।
- जै. ग. 10-12-70/VI / र. ला. जैन सविपाक द्रव्य निर्जरा से समुत्पादित कषाय भाव सविपाक भावनिर्जरा नहीं कहलाते शंका- सविपाक द्रव्यनिर्जरा के समय जो कषायभाव उत्पन्न होकर नष्ट ( निर्माणं ) होते हैं, क्या उन कषायभावों के नष्ट होने को सविपाक भावनिर्जरा नहीं कह सकते ?
समाधान- - वृहद्रव्यसंग्रह गाथा ३६ में 'कम्म पुग्गलं जेण भावेण सडवि' इन शब्दों द्वारा भावनिर्जरा का स्वरूप इसप्रकार बतलाया है कि-मात्मा के जिनभावों से पुद्गल द्रव्यकर्म झड़ते हैं, आत्मा के वे परिणाम भाव निर्जरा हैं । द्रव्यकर्म के उदय में लाकर झड़ने से आत्मा में जो कषायादिक औदयिकभाव उत्पन्न होते हैं वे तो बन्ध के कारण हैं, क्योंकि 'ओदइया बन्धयरा' अर्थात् औदयिकभाव बन्ध करनेवाले हैं ऐसा श्रार्षवाक्य है । द्रव्यकर्मोदय से होने वाले आत्मा के औदयिकभाव द्रव्यकर्मनिर्जरा में कारण नहीं हैं, अतः औदयिकभावों को भावनिर्जरा की संज्ञा नहीं दी गई ।
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- जै. ग. 21-11-74 / VIII / ज. ला. जैन, भीण्डर
"कोटि जनम तप तप, ज्ञान बिनु कर्म भरे जं
शंका- 'कोटिजनम तप तपें, ज्ञान बिन कर्म झरें जें ।' इसमें 'ज्ञान बिन' का अर्थ मिथ्यादृष्टि और 'तप' का अर्थ बालतप कर दिया जाय तो क्या हानि है ।
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समाधान - शंकाकार के अनुसार शब्दों का अर्थ करने पर इसका अर्थ यह होगा - " बालतप के द्वारा मिध्यादृष्टि जीव करोड़ जन्म में जितनी कर्मनिर्जरा करता है उतनी कर्मनिर्जरा सम्यग्दृष्टि त्रिगुप्ति अर्थात् निर्वि करूपसमाधि के द्वारा एकक्षण में कर देता है ।" अर्थात् " मिथ्यादृष्टि की बालतप के द्वारा एक जन्म की निर्जरा को करोड़ से गुणित करने पर जो कर्मनिर्जरा का प्रमाण प्राप्त होता है, वह निर्विकल्पसमाधि अर्थात् क्षपकश्रेणी की एकसमय की निर्जरा के बराबर है ।"
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