Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जंन मुख्तार :
कालेण उवाएण य पच्चंति जधा वणफविफलाणि । तघकालेण तवेण य पच्चंति कवाणि कम्माणि ।। २४९ ॥ मूलाचार
श्री कुन्वकूवाचार्य ने इस गाथा में तप के द्वारा अविपाकनिर्जरा बतलाई है। श्री वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने इसकी टीका में "सम्यक्त्वज्ञानाचारित्रतपोभिः कृतानि कर्माणि पच्यन्ते विनश्यन्ति ध्वस्तीभवन्ती. त्यर्थः । अर्थात सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप इनके द्वारा कर्मों को निर्जरा होती है, ऐसा कहा है। अर्थात तप के अतिरिक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान व चारित्र भी अविपाकनिर्जरा के कारण हैं । यह बात तत्त्वार्थ सूत्र के निम्नलिखित सूत्र से भी सिद्ध होती है।
"सम्यग्दृष्टिधावकविरतानन्त वियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिजराः ॥४५॥"
___ इस सूत्र से यह भी ज्ञात होता है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व करणलब्धि में अविपाकनिर्जरा होती है, उससे असंख्यातगणी प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति के समय होती है। अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना का समय तथा दर्शनमोह की क्षपणा के समय जो करणलब्धि होती है उससे भी अविपाकनिर्जरा होती है। चारित्र के बिना एक अन्तमुहर्त पश्चात् यह अविपाकनिर्जरा रुक जाती है। कुछ अधिक तेतीससागर अविरत सम्यग्दृष्टि का काल है, किन्तु चारित्र के बिना अविपाकनिर्जरा नहीं होती है।
सा पुण दुविहा गया सकालपत्ता तवेण कयममाणा। चादूगदीणं पढमा वयजत्ताणं हवे विदिया॥१०४॥ स्वा० का० अ०
वह निर्जरा दो प्रकार की है-एक स्वकालप्राप्त निर्जरा और दूसरी तप के द्वारा की जानेवाली अविपाकनिर्जरा । पहली विपाकनिर्जरा चारों गति के जीवों के होती है और दूसरी निर्जरा व्रतीजीवों के होती है। श्री पं० कैलाशचन्दजी इसके अनुवाद में लिखते हैं-"दूसरे प्रकार की निर्जरा व्रतधारियों के ही होती है।"
"मिच्छादो सद्दिट्टी असंखगुणकम्मणिज्जरा होदि।" ( स्वा० का० अ०) टीका-"प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ती करणत्रयपरिणामचरमसमये वर्तमानविशुद्धविशिष्ट मिथ्यादृष्टेः आयुपंजितज्ञानावरणाविसप्तकर्मणां यद्गुण श्रेणिनिर्जराद्रव्यं ।"
इससे सिद्ध होता है कि सातिशयमिथ्याडष्टि के भी प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व करणलब्धि के द्वारा भविपाकनिर्जरा होती है।
घडियाजलं व कम्मे अणुसमयमसंखगणियसेढीए ।
णिज्जरमारणे संते वि महव्वईणं कुदोपावं ॥६०॥ जयधवल पु०१ यहाँ पर यह बतलाया है कि महाव्रतियों के प्रतिसमय घटिका यंत्र के जल के समान असंख्यातगुणित श्रेणीरूप से कर्मों की निर्जरा होती रहती है।
व्रत व तप के अतिरिक्त जिनेन्द्रभक्ति भी अविपाकनिर्जरा का कारण है। कहा भी है"अरहंतणमोकारो संपहिय बंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओत्ति ।" जयधवल पु. १ पृ० ९ अर्थ-अरहंत नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा का कारण है।
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