Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अविरतसम्यग्दृष्टि का तप महोपकारक नहीं है, उसका तप गजस्नान तथा वर्मा (काष्ठ में छेद करने का
के समान है। जितना कर्म तप के द्वारा आत्मा से छट जाता है उससे बहतर कर्म असंयम के कारण जीव के बँध जाता है। ऐसा अभिप्राय बतलाने के लिये हस्तिस्नान का दृष्टान्त है। वर्मा का एक पार्श्वभाग रज्जू से दृढ़ वेष्टित होता है और दूसरा पार्श्वभाग मुक्त होता है वैसे ही तप से असंयतसम्यग्दष्टि कर्म की निर्जरा करता है परन्तु असंयम भाव उससे (निर्जरा से) अधिक बहुतरकर्म ग्रहण किया जाता है तथा वह कर्म अधिक दृढ़ भी होता है।
इस आर्ष वाक्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रसंयतसम्यग्दष्टि के तप के द्वारा भी असंख्यातगुणीनिर्जरा नहीं होती है, क्योंकि असंयमभाव के कारण उसके बहुतर और दृढ़कर्म बंध होता रहता है।
-पो. ग. 8-1-70/VII/रो. ला. जैन असंयत के नित्य निर्जरा नहीं होती शंका-क्या सर्वार्थ सिद्धि, नवम अध्याय, सूत्र ४५ का यह अभिप्राय है कि चतुर्थ आदि गुणस्थानों में प्रतिसमय गुणणिनिर्जरा होती रहती है ?
समाधान-मोक्षशास्त्र अ०४५ में असंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा के स्थानों का कथन है। वह धवल पु० १२१७८ गाथा ७ व ८ के आधार पर लिखा गया है। वहाँ पर गाथा ८ में "तग्विवरीवो कालो" से स्पष्ट हो जाता है कि सत्र ४५ में मात्र इन स्थानों को प्राप्त होने के समय में होनेवाली गुणश्रेरिणनिर्जरा का कथन है।
चतुर्थगुणस्थान में प्रथमोपशमसम्यक्त्व के समय, अनन्तानुबन्धीकषाय की विसंयोजना के समय अथवा नमोह की क्षपणा के समय असंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा होती है। किन्तु व्रतों के अभाव में प्रतिसमय असंख्यातगणभणिनिर्जरा नहीं होती है। पांचवें आदि गुणस्थानों में व्रत का सद्भाव होने के कारण प्रतिसमय गुणणि निर्जरा होती रहती है। कहा भी है
असंखेज्जगणाए सेडीए कम्मणिज्जरणहेदू वदं णाम । (ध० ८।८३) अर्थ-व्रत कर्मों की प्रसंख्यातगुणश्रेणि निर्जरा का कारण है ।
-पलावली | ज. ला. जन, भीण्डर संयत से असंयत के असंख्यातगुणी निर्जरा शंका-तत्त्वार्यसूत्र, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में क्रम से असंख्यातगुणीनिर्जरा के ग्यारहस्थान बतलाये हैं। उनमें तीसरा स्थान विरत अर्थात् मुनि का है और पांचवां स्थान क्षायिकसम्यग्दृष्टि का है। यहां पर अविरत क्षायिक सम्यग्दृष्टि का ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि विरत से अविरत के अधिक निर्जरा संभव नहीं है । अतः मुनि क्षायिकसम्यग्दृष्टि ग्रहण करना चाहिये ?
समाधान-विरत ( महाव्रती ) तीसरा स्थान है उससे असंख्यातगुणी निर्जरा चौथे स्थान में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाले के है और उससे असंख्यातगुणी निर्जरा पांचवें स्थान में दर्शनमोहनीय की क्षपणा करनेवाले के है । त० सू० अ० ९ सूत्र । ४५ तथा गो० जीव गा०६६-६७ में चौथे स्थान और पांचवें स्थान में असंयत-सम्यग्दृष्टि संयतासंयत या संयत में से किसी भी अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाले अथवा दर्शनमोहनीय की क्षपणा करने वाले पुरुष के विरत ( महाव्रती ) से असंख्यातगुणी निर्जरा संभव है। कहा भी है
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