Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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इसप्रकार व्रत के द्वारा निर्जरा होते हुए भी तप के द्वारा विशेष निर्जरा होती है, इसीलिये 'तपसा निर्जरा च ॥ ९॥३॥' अर्थात् तप से निर्जरा होती है, ऐसा सूत्र है।
-जं. ग. 30-3-72/VII/ देहरा तिजारा असंयत सम्यक्त्वी को नित्यनिर्जरा नहीं होती शंका-चौथे गुणस्थान में अविपाकनिर्जरा कुछ समय होती है और हरसमय सविपाकनिर्जरा है यह किस तरह से है ? पांचवें गुणस्थान में प्रतिसमय होनेवाली गुणश्रेणी निर्जरा का सम्यग्दर्शन तो चौथे गुणस्थान में भी है फिर वहां ( चौथे गुणस्थान में ) प्रत्येकसमय गुणश्रेणी निर्जरा क्यों नहीं है ?
समाधान-मिथ्यात्व अवस्था से जब जीव सम्यक्त्व अवस्था को प्राप्त होता है, तब सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के पश्चात् परिणामों की विशुद्धता के कारण एक अन्तर्मुहूर्ततक प्रसंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा होती रहती है। इसको अविपाकनिर्जरा भी कह सकते हैं, क्योंकि प्रतिसमय असंख्यातगुणाद्रव्य, उपरितन निषेकों से अपकर्षण करके उदयावली में व उसके बाहिर के एक अ. तमहर्त के निषैकों में दिया जाता है इस द्रव्य का अनुभाग भी कृश हो जाता है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के एक अन्तर्मुहूर्त पश्चात् यह असंख्यातगुणश्रेणीनिर्जरा नहीं होती। इसीप्रकार पंचमगुणस्थान के प्रथम अन्तर्मुहूर्त में असंख्यातगुणीनिर्जरा होती है । चतुर्थगुणस्थान में संयम का अभाव होने के कारण संयमसम्बन्धी गुणश्रेणीनिर्जरा नहीं होती, किन्तु असंयम के कारण उसकी सब धार्मिक क्रिया भी गजस्नानवत् अथवा मथेनी की रज्जु के समान होती है। मूलाचार समयसार अधिकार गाथा ४९ व उसकी संस्कृत टीका में इस प्रकार कहा है-'अविरतसम्यग्दृष्टि के कांश निर्जीर्ण होने पर भी असंयम के द्वारा पुनः बहतर कर्माश को ग्रहण करता है । गजस्नान इष्टान्त का यह अभिप्राय है कि जितना कर्म प्रात्मा से छूटता है उससे बहुततर कर्म असंयम से जीव को बंध जाता है। मथेनी के हष्टान्त का भी यह अभिप्राय है कि जितनी कमनिर्जरा हई असंयमभाव से उससे अधिक कर्मों का ग्रहण हो जाता है। पांचवें गुणस्थान में संयम का एकदेश प्रगट हो जाता है प्रतः उसके प्रतिसमय गुणश्रेणीनिर्जरा होती रहती है।
-ज. सं. 11-12-58/V/ रामदास कॅरामा प्रवतीसमकिती के निर्जरा ( गुणश्रेणिनिर्जरा ) का प्रभाव शंका-असंयतसम्यग्दृष्टि के जो प्रतिसमय असंख्यातगणी निर्जरा होती है वह चारित्र के बिना कैसे संभव है ?
समाधान-मिथ्यादृष्टिजीव जब प्रथमोपशमसम्यग्दर्शन को ग्रहणकर असंयतसम्यग्दृष्टि होता है उसके प्रथम अन्तमुहर्त में असंख्यातगुणी निर्जरा होती है, किन्तु असंयत सम्यग्दृष्टि के सर्वकाल में असंख्यातगुणीनिर्जरा नहीं होती है। जितना कर्म फल देकर झड़ता है, असंयमभाव के कारण उससे अधिक कर्मबंध हो जाता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने मूलाचार में कहा भी है
सम्मानिद्विस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि ।
होवि हु हस्थिव्हाणं चुदच्छिवकम्म तं तस्स ॥१०४९॥ श्री वसुनन्दि आचार्य कृत संस्कृत टीका-"अपगतारकर्मणो बहुतरोपादानमसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः । चुंबच्छिवः कर्मव-एकत्र वेष्टयत्यन्यत्रो ष्टयति तपसा निर्जरयति, कर्मासंयमभावेन बहुतरं गृह्णाति कठिनं च करोतीति ।
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