Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१.८८]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
___ इस सम्बन्ध में निम्नलिखित गाथाएँ ध्यान देने योग्य हैं क्योंकि इनमें शुद्धात्मध्यान से, शुद्धोपयोग से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, कषायनिग्रह, इन्द्रियनिरोध, प्रवचनअभ्यास, इनसे पुण्यबंध भी होता है और मोक्षसुख भी मिलता है, ऐसा बतलाया गया है।
जिणवर मरण जोई झारणे झाएइ सुद्धमप्पाणं । जेण लहइ णिव्याणं लहइ कि तेण सुर लोयं ॥२०॥ जो जाइ जोयण सयं वियहे ऐक्केण लेवि गुरुभारं। सो कि कोसद्ध पि हु ण सक्कए जाहु भुवणयले ॥२१॥ मोक्षपाहुड़
इन दो गाथाओं द्वारा श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने बतलाया है-जो योगी ध्यान में जिनेन्द्रदेव के मतानुसार शुद्धात्मा का ध्यान करता है, वह स्वर्गलोक को प्राप्त होता है, सो ठीक ही है कि जिस ध्यान से निर्वाण प्राप्त हो सकता है उसध्यान से क्या स्वर्ग लोक प्राप्त नहीं हो सकता? अर्थात् अवश्य प्राप्त हो सकता है, क्योंकि जो मनुष्य बहुत भारी भार को एक दिन में सौ योजन ले जाता है तो वह क्या प्राधा कोश भी नहीं ले जा सकता? अवश्य ही ले जा सकता है।'
संपज्जवि णिग्वाणं देवासुर मणुयरायविहवेहि ।
जीवस्स चरित्तादो सणाणप्पहाणादो ॥ ६ ॥ प्रवचनसार श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं-सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान की प्रधानतायुक्त चारित्र से जीवों को देवेन्द्र, बसुरेन्द्र चक्रवर्ती की विभूतियों के साथ निर्वाण भी प्राप्त होता है ।
पुण्णस्सासवभूदा अणुकंपा सुद्धमओ व उवजोओ। विवरीओ पावस्स हु आवसहे वियाणाहि ॥ ५२॥
कषायपाहुड पु०१पृ० १०५ अणुकंपा सुद्ध वओगो वि य पुण्णस्स असवदुवारं ।
तं विवरीदं आसवदारं पावस्स कम्मस्स ॥१८३४॥ मूलाराधना संस्कृत टीका-"सुद्ध वओगो शुद्धश्च प्रयोगः परिणामः।" यहाँ पर शुद्धोपयोग से पुण्यकर्मआस्रव बतलाया गया है।
सम्मत्तेण सुदेस य विरदीए कसायणिग्गहगुरणेहि ।
जो परिणदो स पुण्णो तविवरीदेण पावं तु ॥४७॥ मूलाचार संस्कृत टीका - "सम्यक्त्वाविकारणेन यः कर्मबन्धः स पुण्यमित्युच्यते ।"
यहाँ पर श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने बतलाया है-सम्यग्दर्शन, श्रुत, व्रत, कषायों का निग्रह, इन्द्रियनिरोध से जो कर्मबंध होता है वह पुण्यकर्म है।
तत्तो चेव सुहाई सयलाई थेव मणय खयराणं । उम्मूलियटुकम्मं फुड सिद्धसुहं पि पवयणादो ॥४९॥ धवल पृ० १ ० ५९
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