Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१०६८ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
सकता ।" किन्तु इसके विपरीत श्री पं० टोडरमलजी ने लिखा है-"कबहूँ तो जीव को इच्छा के अनुसार शरीर प्रवर्तें है । कबहूँ शरीर की अवस्था के अनुसार जीव प्रवर्तें है। कबहूँ जीव अन्यथा इच्छारूप प्रवर्तें है, पुगल अन्यथा अवस्थारूप प्रवर्तें है । इहाँ ऐसा जानना, जैसे बोयपुरुषनिकै इकबंडी बेड़ी है। तहाँ एक पुरुष गमनादि किया चाहे अर दूसरा भी गमनादि करें तो गमनादि होय सकें, वोऊनिविषं एक बैठि रहे तो गमनादि होय सके नाहीं अर दोऊनिविषै एक बलवान होय तो दूसरे को भी घीसि लेजाय । तैसे आत्मा के अर शरीराविकरूप पुदगल के एक क्षेत्रावगाहरूप बंधान है तहाँ आत्मा हलन चलनादि किया चाहै अर पङ्गलु तिस शक्ति करि रहित हुआ हलनचलन न करें वा पुद्गलविषं शक्ति पाइए है आत्मा को इच्छा न होय तो हलनचलनावि न होय सकें । बहुरि इनि विषं पुद्गल बलवान होय हाल-चाल तो ताकी साथि विना इच्छा भी आत्मा आदि हाल चालें ।" प्रश्न यह है कि शरीर क्या परमाणुरूप है या स्कन्धरूप है ? और शरीर का परिणमन किस रूप हो रहा है ?
समाधान - श्री उमास्वामी आचार्य ने " अणवः स्कन्धाश्च ॥|५|२५|| " सूत्र द्वारा यह बतलाया है कि पुद्गलद्रव्य दो प्रकार का है अथवा पुद्गल की दो पर्यायें हैं एक प्रणुरूप और दूसरी स्कन्धरूप । इसी बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने नियमसार में कहा है
परमाणु र स्कन्ध के भेद से पुद्गलद्रव्य दो प्रकार का है।
"अणुखंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवेइ दुवियध्वं ।"
शुद्धः इति ।
संस्कृत टीका - परमाणुपर्य्याय: पुद्गलस्य शुद्धपर्य्यायः । स्कन्धपर्य्यायः स्वजातीयबन्धलक्षणलक्षितत्वाद
अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जावो । खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जायो ॥ २८ ॥ [ नियमसार ]
यहाँ पर यह बतलाया गया है कि मन्यद्रव्य निरपेक्ष होने से परमाणुरूप पर्याय पुद्गल की स्वभावपर्याय अर्थात् शुद्धपर्याय है । स्वजातीयबंध के कारण स्कन्धरूप पर्याय पुद्गल की विभावपर्याय अर्थात् अशुद्धपर्याय है ।
श्री अमृतचन्द्राचार्य भी 'तत्त्वार्थसार' के तीसरे अधिकार में कहते हैं—
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द्व्यणुकाद्याः किलानन्ताः पुद्गलानामनेकधा । सन्त्यचित्तमहास्कन्धपर्यन्ता बन्धपर्यायाः ॥ ७६ ॥
अर्थ - द्वणुक को आदि करके प्रचित्तमहास्कन्धपर्यन्त पुद्गल की अनेकप्रकार की बंधपर्यायें हैं । शरीरबंघरूप स्कन्धपर्याय हैं । जब पुद्गल की शरीररूप स्कन्धपर्याय होती है उससमय परमाणुरूप पर्याय का अभाव रहता है, क्योंकि पर्यायें क्रमवर्ती होने से एककाल में एक ही पर्याय विद्यमानरूप रहती है। एककाल में एकद्रव्य की एक से अधिक द्रव्यपर्याय विद्यमान नहीं रह सकती । अतः शरीररूप स्कन्धपर्याय में परमाणुरूप पर्याय की विद्यमानता और उसकी स्वतंत्रता का स्वप्न देखना उचित नहीं है ।
शरीर पुद्गल की बंघरूप पर्यायें हैं। श्री उमास्वामि आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ में "बंधेऽधिको पारिणामिकौ च ।। ३७ ।।" इस सूत्र द्वारा यह बतलाया है कि बंध होने पर जो अधिक गुणवाला है वह पारिणामिक अर्थात् परिणमन कराने वाला होता है ।
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