Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१०६२ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ।
मिथ्यात्व नपुंसक वेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रियजाति, श्रोत्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डकसंस्थान, असंप्राप्तास्पाटिका संहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्तक और साधारण शरीर, यह १६ प्रकृति कर्म हैं जो मिथ्यात्वोदय से बंधते हैं ।
निद्रा निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धो क्रोध मान-माया-लोभ, स्त्रीवेद, तियंचायु, तियंचगति, मध्य के चार संस्थान, मध्य के चार संहनन, तिर्यंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर, अनावेय और नीच गोत्र इन २५ कर्म प्रकृतियों का बंध अनन्तानुबन्धी कषायोदय में होता है ।
इस सम्यक्त्व प्रकृति रूप द्रव्य मोह के उदय से सम्यग्दर्शन में शिथिलता व अस्थिरता आ जाती है । कहा भी है
"सम्मत्तस्स सिढिलभावुष्पाययं अथिरतकारणं च कम्मं सम्मत्तंणाम ।" सम्यक्त्व में शिथिलता का उत्पादक और उसकी प्रस्थिरता का कारणभूत कर्म सम्यक्त्व प्रकृति दर्शनमोह है ।
ऐसा सम्भव नहीं है कि किसी भी द्रव्यमोह का उदय हो और उसके अनुरूप आत्म-परिणाम न हो । निर्विकल्प समाधि में स्थित साधु के भी दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ कर्मोदय के अनुरूप सूक्ष्म साम्पराय रूप परिणाम होते हैं । ऐसा नहीं है कि वह उच्चकोटि का साघु सूक्ष्म लोभोदय में न जुड़े और सूक्ष्म कषाय रूप न परिणम कर पूर्ण अकषाय हो जाय । चारित्र मोहोदय के अभाव में ही जीव ग्यारहवें श्रादि गुणस्थानों में अकषाय होता है ।
-- जै. ग. 18-1-73/V/ ब्र. चुन्नीलाल देसाई व्रती सम्यक्त्वी के बन्ध, संवर व निर्जरा किस-किस कषाय की होती है शंका-अव्रतसम्यग्दृष्टि के किस कषाय का संबर होता है । किस जाति की कवाय की निर्जरा होती है और किस जाति की कषाय का पुण्य तथा पाप का बंध होता है ?
समाधान - अव्रतसम्यग्दृष्टिजीव के चार प्रनन्तानुबन्धी कोष, श्रनन्तानुबन्धी मान, अनंतानुबंधी माया, अनंतानुबन्धी लोभ, और नपुंसकवेद का संवर होता है। प्रव्रतसम्यग्दृष्टि जब अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करता है तब उसके अनंतानुबंधी चौकड़ी की पूर्ण निर्जरा होती है । अन्य अवस्था में अनन्तानुबन्धी कषाय की स्तिबुक संक्रमण द्वारा निर्जरा करता है । अव्रतसम्यग्दृष्टि के सातिशय पुण्यबंध होता है 'शुभोग्योगस्य पुष्योपचयपूर्वकोऽपुनर्भावोपलम्भः ।' अर्थात् - शुभोपयोग का फल पुण्यसंचयपूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है । अव्रतसम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धीकषाय का उदयाभाव हो जाने से अनन्तसंसार का कारण ऐसा पापबंध नहीं होता । तथा २५ पापप्रकृतियों का संवर ( बंधव्युच्छित्ति ) हो जाने के कारण भी तीव्रपाप का बंध नहीं होता । कहा भी है
सम्यग्दर्शनशुद्धा नारक तिर्यङ नपुंसकस्त्रीत्वानि |
दुष्कुल विकृत रूपायुर्वरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः ॥ ( र. क. भा. )
अर्थ - जो जीव सम्यग्दर्शन करि शुद्ध है ते व्रतरहितहू नारकीपणा, तियंचपरणा, नपुंसकपरणा स्त्रीपणा कू नाही प्राप्त होय है । अर नीचकुल में जन्म अर विकृत नाहीं होय तथा अल्प आयु का धारक अर दरिद्रीपना कु नहीं प्राप्त होय है ।
- जं. सं. 6-6-57/
/ जै. स्वा. म. कुचामनसिटी
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