Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १०६५ समाधान-अविरतसम्यग्दृष्टि के कषायों में प्रवृत्ति नहीं है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि 'अविरत' शन्द ही कषायों में प्रवृत्ति का द्योतक है। कहा भी है
जो इंदियेस विरवो, णो जीवे थावरे तसे वापि ।
जो सहहदि जिणुत्तं सम्माइटी अविरवो सो ॥ २९ ॥ गो० जी० अर्थ-जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस-स्थावरजीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनवाणी पर श्रद्धा करता है वह अविरतसम्यग्दृष्टि है।
चारित्त णस्थि जदो अविरद अंतेस ठाणेसु ॥१२॥ गो० जी० अर्थ-अविरतसम्यग्दृष्टि अर्थात् चतुर्थ गुणस्थानतक चारित्र ( संयम ) नहीं होता है।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य, श्री अमृतचन्द्राचार्य तथा श्री जयसेनाचार्य 'प्रवचनसार' गाथा २३७ में कहते हैं कि असंयत प्रर्थात् अविरत का श्रदान अर्थात् सम्यग्दर्शन व्यर्थ है. क्योंकि वह निर्वाण को प्राप्त नहीं कराता है।
"सहमाणो अत्थे असंजदा वा ण णिव्वादि ॥ २३७ ॥" प्रवचनसार
संस्कृत टीका-"असंयतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीतिरूपश्रद्धानं यथोवितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा किं कुर्यात् ।"
यथा प्रदीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुषबलेन कूपपतनाद्यवि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो दृष्टिर्वा कि करोति न किमपि । तथा जीवः श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौषस्थानीयचारित्रबलेन रागादिविकल्परूपावसंयमाद्याविन निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्यान्न किमपीति ।"
अर्थ-पदार्थों का श्रद्धान करनेवाला सम्यग्दृष्टि भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता है। आत्मतत्त्व प्रतीतिरूप श्रद्धान तथा यथोक्त आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञान असंयत के क्या करेगा? अर्थात असंयत के आत्मतत्त्व का श्रद्धान व ज्ञानरूप सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान निरर्थक है । जैसे दीपक को रखनेवाला स्वांखा पुरुष अपने पुरुषार्थ के बल से कूपपतन से यदि नहीं बचता है तो उसका श्रद्धानरूप दीपक व दृष्टिरूप ज्ञान कुछ भी कार्यकारी नहीं हुआ तैसे ही यह जीव सम्यकश्रद्धान व ज्ञानसहित भी है, परन्तु पौरुष के स्थानभूत चारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयम ( अविरति ) भाव से यदि अपने को नहीं बचाता है तो सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान क्या हित कर सकते हैं कुछ भी नहीं कर सकते ।
यहाँ पर यह स्पष्ट कर दिया है कि निज आत्मतत्त्व की श्रद्धारूप सम्यग्दर्शन व निजात्मानुभूतिरूप सम्यग्ज्ञान भी हो, किन्तु चारित्र न हो तो उस अविरतसम्यग्दृष्टिजीव का सम्यग्दर्शन व ज्ञान निरर्थक है। अविरतसम्यग्दृष्टि यदि उपवास आदि तप भी करे तो वह भी उपकारी नहीं है क्योंकि तप के द्वारा जितनी कर्म निर्जरा होगी, अविरति के कारण उससे अधिक बन्ध हो जाता है। श्री कुन्दकन्वाचार्य तथा श्री वसुनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती ने कहा भी है
सम्मादिहिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि ।
होदि हु हत्थिण्हाणं चुंबच्छिद कम्मं त तस्स ॥ १०॥५२॥ मूलाचार संस्कृत टीका -"अपगतारकर्मणो बहुतरोपादानमसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः । चुद. च्छिवः कर्मव एकत्र वेष्टयत्यन्यत्रो ष्टयति, तपसा निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहुतरं गृह्णाति कठिनं च करोतीति।"
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