Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १०९३ स्वरूपावलम्बन के काल में भी कर्म अवश्य निमित्त बनता है शंका-'समयसारवैभव' को भूमिका में पं० जगमोहनलालजी शास्त्री ने लिखा है-'कर्मोदय का अवलम्बन न कर अपने स्वरूप का अवलम्बन करे तो कर्म निमित्त नहीं बन सकता है ।" इस पर प्रश्न होता है -क्या मोहनीय का आलम्बन न हो तो बन्ध भी नहीं होना चाहिये ? किन्तु प्रथम गुणस्थान से दशम गुणस्थान तक कोई ऐसा समय नहीं है, जिसमें कर्म बंध नहीं होता हो।
समाधान - श्री भगवदुमास्वामिप्रणीत 'तत्त्वार्थसूत्र' एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें प्रायः सर्व जैन सिद्धान्तों का सार भरा हुआ है। इसीलिये दि० जैन समाज में इसका बहुत प्रचार है, ऐसा कोई भी गुरुकुल, विद्यालय या पाठशाला नहीं जिसमें छात्रों को 'तत्त्वार्थ सूत्र' का अध्ययन न कराया जाता हो। जिन्होंने स्वयं संस्कृत विद्यालय में अध्ययन किया हो और उसके पश्चात् ४०-५० वर्ष से विद्यालय में अध्ययन करा रहे हों, उनको 'तत्त्वार्थसूत्र' विशेषज्ञ होना चाहिये । उसी 'तत्त्वार्थ सूत्र' के आधार पर इस विषय का विचार किया जाता है ।
"विपाकोऽनुभवः ॥ २१॥ स यथानाम ॥ २२ ॥ ततश्च निर्जरा ॥ २३॥ अध्याय ८ ।
संस्कृत टीका-"विशिष्टो विविधो वा पाक उदयः विपाकः, यो विपाकः स अनुभव इत्युच्यते । स अनुभवः प्रकृतिफलं जीवस्य भवति । कयम् ? यथानाम प्रकृतिनामानुसारेण । तेन ज्ञानावरणस्य फलं ज्ञानाभावो सवि. कल्पस्यापि । एवं सर्वत्र सविकल्पस्य कर्मणः फलं सविकल्पं ज्ञातव्यम् । दर्शनावरणस्य फलं दर्शनशक्तिप्रच्छावनता। मोहनीयस्यफलं मोहोत्पादनम् । मायुषः फलं भवधारणलक्षणम् । ततस्तस्माद्विपाकादनन्तरमात्मने पीडानुग्रहवाना. नन्तरं दुःखसुखवानानन्तरं निर्जरा भवति ।"
'वि' अर्थात् विशेष और विविध, 'पाक' अर्थात् कर्मों के उदय या फल देने को अनुभव कहते हैं। प्रकृति के नाम के अनुसार वह अनुभव अर्थात् प्रकृतिफल जीव के होता है। ज्ञानावरणकर्म के फल से ज्ञान का प्रभाव होता है। प्रात्मा की दर्शनशक्ति को प्रच्छादन करना दर्शनावरण का फल है। आत्मा में मोह को उत्पन्न करना मोहनीयकर्म का फल है। भव में रोके रखना आयुकर्म का फल है। कर्म की विपाक ( फल देने ) के पश्चात् अर्थात् प्रात्मा का भला-बुरा करके अथवा सुख-दुःख देकर कर्म की निर्जरा हो जाती है ।
इसी बात को श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है"स्वफलसंपावनसमर्थकर्मावस्थालक्षणान्युक्यस्थानानि ।" समयसार ।
विपाकः प्रागुपात्तानो यः शुभाशुभकर्मणाम् । असावनभवो ज्ञेयो यथानाम भवेच्च सः॥ तत्त्वार्थसार
क्षपक श्रेणी में कर्मों का क्षय करनेवाले जीव के सर्वोत्कृष्ट स्वरूप का अवलम्बन होता है और दसवें गुणस्थान में मोहनीयकर्म सूक्ष्म होता है, किन्तु सूक्ष्ममोहनीयकर्म भी उस स्वस्वरूप का अवलम्बन करनेवाली प्रात्मा को सूक्ष्मकषाय उत्पन्न कराता है। इसीलिये इस गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसाम्प राय रखा गया है। श्री अमृतचन्द्रा. चार्य ने इस सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थान का स्वरूप इस प्रकार कहा है
सूक्ष्मत्वेन कषायाणां शमनाक्षपणात्तथा । स्यात्सूक्ष्मसापरायो हि सूक्ष्मलोभोदयानुगः ॥ २७ ॥ तत्त्वार्थसार
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