Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
बन्धस्य प्रसिद्धौ तद्धतुरपि सिनः तस्याहेतुकत्वे नित्यत्वप्रसङ्गात् सतो हेतुरहितस्य नित्यस्यव्यवस्थितेः । (पृ० ४) न चायंमावबंधो द्रव्यबन्धमंतरेण भवति, मुक्तस्यापितत्प्रसङ्गादिति द्रव्य बंधः सिद्धः। सोपि मिथ्यावर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगहेतुक एव बंधत्वात भावबंध वदिति मिथ्यादर्शनादिर्बन्धहेतुः सिद्धः। (पृ० ५) कारिका २।
____ अर्थ-कर्मबंध सिद्ध हो जाने पर उसके हेतु ( कारण ) भी सिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि कर्मबन्ध को अहेतुक (निष्कारण ) मानने पर कर्मबंध को नित्य मानना पड़ेगा, क्योंकि जो सत् है और कारणरहित है वह नित्य व्यवस्थित किया गया है। भावबंध भी द्रव्यबंध के बिना नहीं होता। अन्यथा मुक्त जीवों के भी भावबंध का प्रसंग आयगा। द्रव्यबंध भी मिथ्यादर्शन अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से उत्पन्न होता है, क्योंकि बंध है, जैसे भावबंध । इसप्रकार द्रव्यबंध के मिथ्यादर्शन आदि कारण हैं, वह अहेतुक नहीं है।
-जं. ग. 14-8-67/VII/ ........" १. मात्र योग बन्ध का कारण नहीं है २. कषाय सहित योग अथवा कषाय बन्ध का कारण है
३. मात्र योग वालों के भो स्थिति-अनुभाग बन्ध शंका-क्या योग से बंध होता है या योग से मात्र आस्रव होता है और कषाय से बंध होता है ? मात्र मानव तो हो जावे और बंध न हो क्या ऐसा भी सम्भव है ?
समाधान-सर्व प्रथम योग के लक्षण पर विचार किया जाता है-प्रदेशपरिस्पन्दरूप आत्मा की प्रवृत्ति के निमित्त से कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत वीर्य की उत्पत्ति को योग कहते हैं। प्रात्मा के प्रदेशों के संकोच और विस्ताररूप होने को योग कहते हैं। अथवा जीव के प्राणियोग को योग कहते हैं (ध. पु. १ पृ. १४०)। भावमन की उत्पत्ति के लिये जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग कहते हैं। वचन की उत्पत्ति के लिये जो प्रयत्न होता है उसे वचनयोग कहते हैं और काय की क्रिया की उत्पत्ति के लिये जो प्रयत्न होता है उसे काययोग कहते हैं (ध. पु. १ पृ. २७९) । मनोवर्गणा से निष्पन्न हुए द्रव्यमन के अवलम्बन से जो जीव का संकोच-विकोच होता है वह मनोयोग है। भाषावगंणा सम्बन्धी पुद्गलस्कन्धों के अवलम्बन से जो जीव प्रदेशों का संकोच-विकोच होता है वह वचनयोग है । जो चतुर्विध शरीरों के अवलम्बन से जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच होता है वह काययोग है (धवल पु. ७ पृ. ७६ ) । कायवाक् (वचन) और मन के कर्म को योग कहते हैं (त. सू. अ. ६ सूत्र १)।
यह योग आस्रव है ( तस्वार्थ सूत्र अ. ६ सूत्र २)। जैसे जलागमन द्वार से जल आता है उसी तरह योग प्रणाली से आत्मा में कम आते हैं अतः इस योग को आस्रव कहते हैं (राज. वा. अ. ५ सू. २ वा. ४)। 'कम्मागमकारणं जोगों' पर्थात् कर्म के आगमन के कारण को जोग कहते हैं ( गो. जी. गा. २१६)। इन प्रमाणों से जाना जाता है कि योग से प्रास्रव होता है।
यह आस्रव दो प्रकार के जीवों के होता है। एक कषायसहित जीवों के और दूसरे अकषायजीवों के। सकषाय जीवों के साम्परायिकआस्रव होता है और अकषाय जीवों के ईर्यापथआस्रव होता है (त. सू. अध्याय ६ सूत्र ४)। इसी सूत्र की टीका में श्री अकलंकदेव लिखते हैं कि 'क्रोधादि परिणाम प्रात्मा के स्वरूप की हिंसा करते हैं, मतः ये कषाय हैं। अथवा जसे वट वृक्ष आदि का चेप चिपकने में कारण होता है उसी तरह क्रोध आदि भी कर्म बन्धन के कारण होने से कषाय हैं । मिथ्यारष्टि से लेकर दसवें गुणस्थान तक कषाय का चेप रहने से योग के द्वारा आये हुए कर्म गीले चमड़े पर धूल की तरह चिपक जाते हैं, उनमें स्थिति बंध हो जाता है, यह साम्परायिक
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