Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व प्रौर कृतित्व ]
[ १०६७
अनादि से सिद्ध हैं और अनादि से ही चारों गतियों में जीव हैं। जीवों के वर्तमान में जो बंध पाया जाता है वह सादि है, सकारण है और नानाजीवों की अपेक्षा उसमें हीनाधिकता है ।
-जं. सं. 19-3-57/V/ *. ला. जैन, कुचामन सिटी
जीव व पुद्गल भिन्न-भिन्न द्रव्यों का अनादिकालीन सम्बन्ध है, इसका उदाहरण
शंका-मोक्षमार्ग प्रकाशक के पृष्ठ ३३ पर शंका उठाई गई है कि जीवद्रव्य व पुद्गलद्रव्य जो न्यारे. न्यारे द्रव्य और अनादि से तिनिका सम्बन्ध ऐसे कैसे संभवे ? इसके समाधान में तिल तेल, जल-दूध, सोना किट्टिका व तुष-कण का उदाहरण देकर समझाया गया है। पर वे उदाहरण तो पुद्गलद्रव्य के पुद्गलद्रव्य में हो हैं। शंका जीव व पुद्गल अलग-अलग द्रव्य की है । अतः पूरी तरह से समझ में नहीं बैठा। ऐसे ही जीव व पुदगल अलग-अलग द्रव्यों का उदाहरण देकर समझा।
समाधान-प्रत्यक्ष पदार्थों का उदाहरण दिया जाता है। तिलतल, सोना किट्टिका आदि प्रत्यक्ष देखने में आते हैं, प्रतः इनका उदाहरण दिया गया है। उदाहरण एकदेश होता है, सर्वांग नहीं होता है। जीव और पुद्गल का सम्बन्ध है यह प्रत्यक्ष अनुभव में आ रहा है। यह सम्बन्ध यदि सादि होता तो सिद्ध भगवान के भी हो जाना चाहिये था। किन्तु सिद्ध भगवान के पुद्गल का सम्बन्ध होता नहीं अतः जीव-पुद्गल का सम्बन्ध अनादि का है। इसका उदाहरण जीव-पुद्गल ही है। जैसे राम-रावण युद्ध का उदाहरण राम-रावण युद्ध ही है। सर्वांग अन्य उदाहरण नहीं हो सकता है।
-जं. सं. 19-3-59/V/ .. ला. जैन, कुवामनसिटी जीव का कर्मों के साथ समवाय संबंध है शंका-धवल सिद्धान्त ग्रन्थ पुस्तक १ पृष्ठ २३३ व २३४ पर लिखा है-'जीव के साथ कर्मों का समवायसंबंध होता है।' सो कैसे है ?
समाधान-जीव और कर्मों का अनादि काल से बंधनबद्ध संबंध है । इस बंधनबद्ध संबंध के कारण जीव और पदगल दोनों अपने-अपने स्वभाव से च्युत हो रहे हैं। कर्मोदय के कारण जीव विभावरूप परिणमन करता है। जीव में रागद्वेष होने पर पुद्गल द्रव्य-कर्मरूप परिणम जाता है । इसप्रकार के बंधनबद्ध संबंध को संयोगसंबंध तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि पृथक् प्रसिद्ध पदार्थों के मेल को संयोग कहते हैं । अयुत सिद्ध पदार्थों का एकरूप से मिलने का नाम समवाय है (ध० पु. १५ पृ० २४ ) । अतः जीव और कर्मों का समवायसंबंध है ।
-जे.सं. 25-12-58/V/क. दे. गया
(१) पुण्य बन्ध किससे होता है ?
(२) संक्लेश व विशुद्धि का लक्षण शंका-"राग घातिकर्म को पापप्रकृति है अतः उससे पुण्यबंध नहीं हो सकता, पुण्यबंध तो विशुद्धरूप परिणामों से होता है।" क्या ऐसा सिद्धान्त आगम अनुकूल है ? संक्लेश और विशुद्धि का क्या लक्षण है ? भव्य जीवों के उत्कर्ष का कारण विशुद्धि है या संक्लेश है ?
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