Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
चौथे, पांचवें, छठे इन तीनगुणस्थानों में सम्यक्त्व तथा सम्यक्त्व व व्रतों के साथ-साथ बुद्धिपूर्वक राग भी है। अतः इस मिश्रभाव को शुभोपयोग कहा गया है, इससे बंध भी होता है और संवर, निर्जरा भी होती है । यदि कहा जाय कि एक ही कारण से दो भिन्न-भिन्न विपरीतकार्य नहीं हो सकते हैं सो ऐसा ऐकान्त भी नहीं है, क्योंकि घी के दीपकरूप एक ही कारण से प्रकाश व अंधकाररूप धूम्र एक ही समय में दो विपरीत कार्य उत्पन्न होते हए दिखाई देते हैं। कहा भी है
"तपसोऽभ्युदय हेतुत्वा निर्जराङ्गत्वाभाव इति चेत् न एकस्यानेककार्यारम्भदर्शनात् ।" [रा० वा. ९॥३॥४]
यहाँ पर शंकाकार कहता है कि तप से तो पुण्यबंध होकर इन्द्र आदि के सांसारिकसुख मिलते हैं, जैसा कि परमात्मप्रकाश २१७२ में 'इवत्त वितवेण' द्वारा कहा है। फिर तत्वार्थ सूत्र "तपसा निर्जरा च ॥९॥३॥" अर्थात तप से संवर निर्जरा होती है ऐसा क्यों कहा गया है ? आचार्य कहते हैं कि ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि एक कारण से अनेक कार्य पाये जाते हैं अर्थात तप से इन्द्रादि पद का कारण पूण्यबंध भी होता है और संवर-निर्जरा भी होती है।
धर्मध्यान शुभोपयोग है जैसा कि श्री कुन्दकुन्वाचार्य ने भावपाहुड़ में "सुह धम्मं जिणवारदेहि" पद द्वारा कहा है । इस शुभोपयोगरूप धर्मध्यान से संवर-निर्जरा भी होती है, इसीलिये तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९ में "परे मोक्षहेतू ॥२९॥" सूत्र द्वारा शुभोपयोगरूप धर्मध्यान को मोक्ष का कारण कहा है । अर्थात् शुभोपयोगरूप धर्मध्यान से संवर व निर्जरा होती है इसीलिए मोक्ष का कारण बतलाया गया है ।
श्री वीरसेनाचार्य भी जयधवल में कहते हैं"सुहसुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयामावे तक्खयाणुववत्तीदो।" [ पु० १ पृ० ६ ]
अर्थ-यदि शुभपरिणामों से और शुद्धपरिणामों से कर्म का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो नहीं सकता है।
प्रथमोपशमसम्यक्त्व से पूर्व पांच लब्धियां होती हैं। उनमें से पांचवीं जो करणलब्धि है, उसमें प्रति समय असंख्यातगुणी-प्रसंख्यातगुणी कर्मों की निर्जरा होती है और उसके पश्चात् चतुर्थ प्रादि गुणस्थानों में कर्मों की निर्जरा होती है वह शुभोपयोग से ही होती है, क्योंकि शुद्धोपयोग तो सातिशयअप्रमत्तसंयत-सातवें गुणस्थान से होता है अथवा ग्यारहवें गुणस्थान से होता है। यदि शुभोपयोग से निजरा न मानी जाय तो करणलब्धि में निर्जरा के अभाव में सम्यक्त्वोत्पत्ति के अभाव का प्रसंग मा जायगा जिससे मोक्ष का भी प्रभाव हो जायगा।
शुभोपयोग मिश्रित परिणाम होने के कारण विशिष्ट पुण्यबंध व संवर-निर्जरा इन दोनों का कारण होता है।
यदि कहा जाय कि शुभोपयोग में जितने अंशों में सम्यक्त्व व चारित्र है उतने अंशों में संवर, निर्जरा होती है और जितने अंशों में राग है उतने अशों में बंध होता है. क्योंकि सम्यग्दर्शन व सम्यकचारित्र मोक्ष के ही कारण हैं बंध के कारण नहीं हैं, तथा राग-द्वेष बन्ध का ही कारण है, संवर-निर्जरा का कारण नहीं है। सो ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा एकान्तनियम नहीं है।
यद्यपि शुद्धनिश्चयनय से सम्यग्दर्शन-चारित्र संवर व निर्जरा के कारण हैं और राग बंध का कारण है तथापि तीर्थकर मादि कुछ ऐसी विशिष्ट कर्म-प्रकृतियां हैं जिनके बन्ध में सम्यक्त्व अथवा सम्यक्त्व व चारित्र कारण होते हैं तथा विशिष्ट प्रशस्तराग भी मोक्ष का परम्परा कारण हो जाता है।
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