Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
समाधान - श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने शुद्धोपयोग का लक्षण इस प्रकार कहा है
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सुविविदपयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगवरागो ।
समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धोवओगो ति ॥ १४ ॥ प्रवचनसार
जिस मुनि ने पदार्थों को, सूत्रों को भलीभांति जान लिया है, जो संयम-तप से युक्त है, वीतराग है और जिसको सुख दुःख समान है, ऐसा मुनि शुद्धोपयोगरूप होता है ।
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इस गाथा से इतना स्पष्ट हो जाता है कि मुनि के ही शुद्धोपयोग हो सकता है, श्रावक के शुद्धोपयोग नहीं हो सकता है और वह मुनि ( समस्तरागादिदोष रहित्वाद्वीतरागः ) बुद्धिपूर्वक समस्त रागादि दोषों से रहित होने के कारण, वीतरागी होना चाहिये ।
"निविकल्प समाधिकाले तु निश्चयेनेति तवेव च नामान्तरेण परमसाम्यमिति तदेव परमसाम्यं पर्यायनामान्तरेण शुद्धोपयोगलक्षणः श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो ज्ञातव्य इति ।"
( प्रवचनसार गाथा २४२ जयसेना० पृ० ५८३ )
सम्यग्दर्शन- ज्ञान-चारित्र की एकाग्रता निश्चय से निर्विकल्पसमाधि में होती है उसीका नाम परम साम्य है और वह साम्य ही शुद्धोपयोग का लक्षण है । वह साम्य ही श्रामण्य है अथवा मोक्षमार्ग है । इस कथन से इतना और स्पष्ट हो जाता है कि 'शुद्धोपयोग' निर्विकल्पसमाधि में होता है और निर्विकल्पसमाधि मुनि के ही होती है ।
"सर्व परित्यागः परमोपेक्षा संयमो वीतरागचारित्रं शुद्धोपयोग इति याववेकार्थः ।" प्रवचनसार पृ. ५९२ ।
सर्वपरित्याग ( अंतरंग व बहिरंग समस्त परिग्रह का पूर्णरूपेण बुद्धिपूर्वक परित्याग ), परमोपेक्षासंयम, वीतराग चारित्र और शुद्धोपयोग ये एकार्थवाची हैं । अर्थात् अपहृतसंयम या सरागचारित्र में शुद्धोपयोग नहीं हो सकता है । जब सरागचारित्र वाले के शुद्धोपयोग नहीं हो सकता तब एकदेशसंयत व असंयत के शुद्धोपयोग कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ।
"अथ प्रामृत शास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण कथितानि । कथमिति चेत् ? मिथ्यात्व - सासादन मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येना शुभोपयोगः, तदनन्तरमसंयत सम्यग्दृष्टि देश विरत प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः तदनन्तरं सयोग्ययोगी जिन गुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः ||९|| प्रवचनसार
प्राभृतशास्त्र में उन शुभ, अशुभ व शुद्धोपयोग का संक्षेपरूप कथन १४ गुणस्थानों की अपेक्षा किया गया है, जो इस प्रकार है- मिध्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीनगुणस्थानों में तारतम्य में घटता हुमा प्रशुभोपयोग है । प्रसंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तारतम्य से बढ़ता हुआ शुभोपयोग है । प्रप्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय तक छह गुणस्थानों में तारतम्य से बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग है । सयोगिजिन और अयोगिजिन इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है ।
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इस वाक्य से स्पष्ट है कि प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ति के समय चौथे गुणस्थान के प्रारम्भ में तथा पांचवें व छठे गुणस्थानों में व्रतों के कारण प्रतिसमय जो निर्जरा होती है वह शुभोपयोग का ही फल है, क्योंकि इन तीन गुणस्थानों में शुद्धोपयोग नहीं होता है, जैसा कि उपर्युक्त आप्रमाणों में कहा गया है ।
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