Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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अर्थ-देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी कौन है ? श्रृतोपयोग से उपयुक्त, तत्प्रायोग्य विशुद्धपरिणाम वाला है और उत्कृष्ट आबाधा के साथ उत्कृष्ट स्थितिबंध कर रहा है, अन्यतर प्रमत्तसंयत साधु देवायु के उत्कृष्ट स्थिति अर्थात् तैतीससागर स्थितिबंध का स्वामी है।
प्रमत्तसंयतसाधु मोक्षमार्गी है इसीलिये 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में लिखा है कि ३१ सागर से अधिक आयु का धारी देव वही मनुष्य होगा जो मोक्षमार्गी है ।
यदि कहा जावे कि रत्नत्रय से बंध नहीं होता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि जघन्यरत्नत्रय से देवायु आदि पुण्यप्रकृतियों का बंध होना सम्भव है ।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी हैसरागसंयमश्चैव सम्यक्त्वं देशसंयमः । इति देवायुषो ह्यते भवन्त्यानवहेतवः ॥४॥४३॥ तत्त्वार्थसार सरागसंयम, सम्यक्त्व और देशसंयम ये सब देवायु के आस्रव के कारण हैं । श्री कुन्दकुन्दाचार्य भी कहते हैं
दसणणाणचरिताणि मोक्खमग्गोत्ति सेविदध्वाणि ।
साहिं इदं मणिवं तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा ॥ १६४ ॥ (पं० का० ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है, इसलिये वे सेवने योग्य हैं ऐसा साधु पुरुषों ने कहा है। उन सम्यरदर्शन-ज्ञान चारित्र से बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है ।
निर्जरा कर्मणां येन तेन वृत्तिस्तपो मतम् । चत्वार्येतानि मिश्राणि कषायैः स्वर्गहेतवः ॥३०७॥ निष्कषायाणि नाकस्य मोक्षस्य च हितैषिणाम् ।
चतुष्टयमिदं वर्म मुक्ते प्रापमङ्गिभिः ॥३०९॥ महापुराण सर्ग ४७ अर्थ-जिससे कर्मों की निर्जरा हो ऐसी वृत्ति धारण करना तप कहलाता है। ये चारों ही ( सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र-तप ) गुण यदि कषायसहित हों तो स्वर्ग के कारण हैं और कषायरहित हों तो आत्महित चाहनेवाले लोगों को स्वर्ग-मोक्ष दोनों के कारण हैं। ये चारों ही मोक्षमार्ग हैं और प्राणियों को बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं।
ज'. ग. 4-5-72/VII/ सुलतानसिंह महाव्रत बन्ध के कारण नहीं हैं शंका-सोनगढ़ के प्रचारक "सम्यक्त्वं च ।" इस सूत्र का अर्थ तो इसप्रकार करते हैं कि सम्यक्त्व देवायु का कारण नहीं है, अपितु उसके साथ जो राग है वह देवायु का कारण है, किन्तु जहाँ महावत व तप का प्रकरण आता है वहां पर वे प्रचारक यह अर्थ करते हैं कि महाव्रत व तप आस्रव के कारण हैं, संवर निर्जरा के कारण नहीं हैं। वे यह नहीं कहते कि महाव्रत व तप आस्रव का कारण नहीं हैं, किन्तु महावत आदि के साथ जो राग है वह आस्रव का कारण है । इसप्रकार अर्थ करके क्या सोनगढ़ के प्रचारक चारित्ररूप धर्म का अवर्णवाद नहीं करते हैं ?
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