Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व र कृतित्व ]
श्री पूज्यपादाचार्य ने कहा भी है
" एकस्यानेककार्यदर्शनादग्निवत् । यथाऽग्निरेकोऽपि विक्लेदन मस्माङ्गारादिप्रयोजन उपलभ्यते तथा तपोsभ्युदयकर्मक्षय हेतुरित्यत्र को विरोधः । " ( सर्वार्थसिद्धि ९-३ )
अग्नि के समान एक ही कारण से अनेक कार्य देखे जाते हैं । जैसे अग्नि एक है तो भी उसके विक्लेदन भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य उपलब्ध होते हैं वैसे ही सम्यक्तप अभ्युदय ( सांसारिक सुख ) और कर्मक्षय इन दोनों का हेतु है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है ।
निर्जरा कर्मणां येन तेन वृत्तिस्तपो मतम् । चत्वार्येतानि मिश्राणि कषार्यः स्वर्गहेतवः ॥ ३०७ ॥ froserofण नाकस्य मोक्षस्य च हितैषिणाम् ।
चतुष्टयमिवं वरमं मुक्तेतुं प्रापमङ्गिभिः ॥ ३०८ ॥ ( महापुराण पर्व ४७ )
जिससे कर्मों की निर्जरा हो ऐसी वृत्ति धारण करना तप कहलाता है। ये रत्नत्रय व तप चारों ही गुण यदि कषायसहित हों तो स्वर्ग के कारण हैं और यदि कषायरहित हों तो आत्महित इच्छुक पुरुषों को स्वर्ग-मोक्ष दोनों के कारण हैं ।
जयधवल जैसे महान ग्रन्थ के कर्त्ता श्री भगवज्जिनसेनाचार्य ने उपर्युक्त श्लोक में निष्कषाय, रत्नत्रय व तप को भी स्वर्ग का कारण कहा है, क्योंकि उपशांत मोहजीव मरकर स्वर्ग में उत्पन्न होता है । सकषाय रत्नत्रय व तप स्वर्ग का कारण होने से देवायु के बन्ध का कारण है । इसीलिये श्री अमृतचन्द्राचार्य ने तत्त्वार्थसार में सरागसंयम को देवायु के बन्ध का कारण कहा है।
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यद्विशुद्धः तववृत्तं
परंधाम
यद्योगिजनजीवितम् । सर्वसाद्य वालक्षणम् ॥१॥
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अर्थ- जो विशुद्धता का उत्कृष्ट धाम है तथा योगीश्वरों का जीवन है और समस्त प्रकार की पापरूप प्रवृत्तियों से दूर रहना जिसका लक्षण है वह सम्यक्चारित्र है ।
पञ्च महाव्रतमूलं समितिप्रसरं नितान्तमनवद्यम् । गुप्तिफलभारनत्र सन्मतिना कोर्तितं वृत्तम् ॥ ३ ॥
मूल
श्री वद्धमानस्वामी तीर्थंकर भगवान ने तेरहप्रकार का चारित्र कहा उस चारित्र के पंचमहाव्रत तो है पंचसमिति प्रसर ( फैलाव ) है श्रीर तीन गुप्ति फल है ।
पञ्चव्रतं समिरपंच गुप्तित्रयपावेत्रितम् । श्रीवीरववनोग्दीर्णचरणं चन्द्रनिर्मलम् ॥५॥
श्री वीर भगवान ने तेरहप्रकार का चारित्र कहा है- ५ महाव्रत, ५ समिति और तीन गुप्ति ।
हिंसायामनृते स्तेये मैथुने च परिग्रहे ।
विरति तमित्युक्तं सर्वसत्त्वानुकम्पर्कः ॥ ६ ॥ ज्ञानार्णव सर्ग ८
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