Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १०६९
छतुमयविहिववत्थुसु वदणि यमज्झयणझाणदाणरवा ।
ण लहवि अपुणब्भावं भावं, सावप्पगं लहवि ।।२५६॥ (प्र० सा० ) टीका-शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वकोऽपुनर्भावोपलम्भः किलफलं, तत्त कारणवपरीत्याद्विपर्यय एव । तत्र छमस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवपरीत्यं, तेषु व्रतनियमाध्ययनध्यानवानरतस्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्यापुनर्भाव शून्य केवलपुण्यापसवप्राप्तिः फलवपरीत्यं तस्सुदेवमनुजस्वम् ।। २५६ ॥ प्रशस्तरागविपाकात पभोपयुक्ताः ।। २५६ ॥
प्रशस्त राग के विपाक से होने वाला शुभोपयोग अथवा विशुद्धि वस्तुभेद से विपरीतरूप फलता है । यदि वह प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कथित वस्तु में उपयुक्त है तो उसका फल पुण्यसंचय पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। यदि वह प्रशस्तरागरूप शुभोपयोग छद्मस्थ कथित वस्तु में उपयुक्त है और उसके अनुसार व्रत, नियम, अध्ययन, ध्यान, दान आदि की क्रिया भी करता है तो उसका फल मोक्षशन्य मात्र निरतिशयपूण्य की प्राप्ति है। जिससे सूदेव मनुष्यत्वपर्याय तो मिल जायगी, किन्तु मुक्ति नहीं होगी। इसप्रकार निमित्तकारण की विपरीतता से उपादान के फल ( कार्य ) में विपरीतता अवश्यम्भावी है ।
धवल अध्यात्मप्रथ में संक्लेश व विशुद्धि परिणामों का लक्षण इसप्रकार कहा है"को संकिलेसोणाम? असावबंधजोग्गपरिणामो संकिलेसोणाम | का विसोही ? साबबंध जोग्गपरिणामो।"
ध० पु० ६ पृ. १८० असाता के बंध योग्य परिणामों को संक्लेश कहते हैं। साता के बंध योग्य परिणामों को विशुद्धि कहते हैं। "साबबंधपाओग्गकसाउवयदाणाणि विसोही, असावबंधपाओग्गकसाउदयद्राणाणि संकिलेसोत्ति।"
३० पु० ११ पृ० २०९ सातावेदनीय के बन्धयोग्य कषायोदय स्थानों को विशुद्धि कहते हैं और प्रसातावेदनीय के बंधयोग्य कषायोदय स्थानों को संक्लेश ग्रहण करना चाहिये।
"सादबंधया इदि उत्तेसाव-थिरसुभ-सुस्सर सुभग आदेज्ज-जसकित्ति-उच्चागोवाणमटण्णं सुहपयडीणं परियत. माणोणं गहणं कायव्वं, अण्णोण्णाविणाभाविबंधावो। असावबंधया इवि उत्ते असाव-अथिर-असुह-दुमग-दुस्सरअणावेज्जअजसगित्ति-णीचागोदं बंधयाणं गहणं कायव्वं, बंधेण अपणोष्णाविणाभावित्तदंसणादो।"ध० पू० १११०३१२
साताबंध योग्य कहने पर साता, स्थिर, शुभ, सुस्वर, सुभग, आदेय, यशकीति और उच्चगोत्र इन माठ परिवर्तमान प्रकृतियों का ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि इनके बंध में परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। प्रसाताबंधयोग्य कहने पर असाता, स्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयशकीति और नीचगोत्र के बंध का ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि बंध की अपेक्षा उनका अविनाभाव संबंध है।
सर्वज्ञ वीतराग कथित वस्तु में उपयुक्त प्रशस्तराग-शुभोपयोगरूप विशुद्धि भव्य जीवों के उत्कर्ष का कारण है। छमस्थ कथित वस्तु में उपयुक्त प्रशस्तरागरूप विशुद्धि और संक्लेश जीवों के उत्कर्ष का कारण नहीं है।
-णे. ग. 27-5-76/VI/ राजमल जैन
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