Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१.६४ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
इसप्रकार एक ही भाव से बन्ध और मोक्ष आर्ष ग्रन्थों में स्पष्टतया कहा गया है। इन पार्षग्रन्थों के अनुसार ही अपनी श्रद्धा बनानी चाहिये । वह ही सम्यग्दर्शन है।
-जें. ग. 6-8-64/IX/ आर. डी.जन बन्ध, सम्बन्ध, तादात्म्य संबंध एवं संयोग संबंध शंका-बंध, संबंध, तादात्म्यसंबंध और संयोगसंबंध इनके लक्षण क्या हैं ? समाधान-दो द्रव्यों का परस्पर श्लेष होना बंध का लक्षण है । कहा भी है
"परस्पर श्लेषलक्षणे बन्धे सतिद्वषणुकस्कन्धो भवति ।" सर्वार्थ सिद्धि ५३३३ ___ इससे पूर्व अवस्थाओं का त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है अतः उनमें एकरूपता आ जाती है । कहा भी है
"ततः पूर्वावस्थाप्रच्यवनपूर्वकं तायिकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते ।" स० सि० ५॥३७ हाइड्रोजनहवा तथा माक्सीजनहवा का बंध होकर जल बन जाता है। जीव-कम का बंध सम्बन्ध है।
जिनके प्रदेश तो भिन्न न हों, किन्तु संज्ञा, संख्या लक्षण से भिन्न हो वह तादात्म्य-संबंध है। जैसे अग्नि और उष्णता का सम्बन्ध । गुण-गुणी का संबंध, पर्याय और पर्यायी का तादात्म्य सम्बन्ध है, क्योंकि इनके प्रदेश भिन्न नहीं हैं।
दो द्रव्यों का परस्पर इस प्रकार मिलना कि तीसरी अवस्था प्राप्त न हो उसको संयोगसम्बन्ध कहते हैं । जैसे कपड़े में ताना और बाना का संयोगसम्बन्ध है।
-जे'. ग. 19-12-66/VIII/ रतनलाल समकितो के बन्ध का कारण चारित्रमोह शंका-कलश नं० ११ पुण्य-पाप अधिकार समयसार में कहा है-"कर्म के उदय की बरजोरी से कषाय बिना जो कर्मउदय होय है सो तो बन्ध को ही कारण है" सम्यक्त्वप्रकृति का उदय बन्ध का कारण क्यों नहीं ?
समाधान-समयसार पुण्य-पाप अधिकार कलश नं० ११ में जो कर्म के उदय को बन्ध का कारण कहा वहां पर चारित्रमोह कर्मोदय से अभिप्राय है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के दसवें गुणस्थानतक चारित्रमोहकर्म के उदय के कारण बन्ध होता रहता है। मिथ्यात्वकर्म और चारित्रमोहनीयकर्म का उदय ही बन्धका कारण है, शेष कर्मों का उदय बन्ध का कारण नहीं है। कहा भी है-"सभी औदयिकभाव बन्ध के कारण नहीं हैं। मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग ये चार प्रौदयिकभाव बन्ध के कारण हैं।" धवल पु०२ पृ०९। मात्र औदयिकभाव बन्ध का कारण नहीं, यदि वह मोहनीयकर्म उदयसहित है तो बन्ध हाता है अन्यथा बन्ध नहीं होता है। [प्रवचनसार गाया ४१ । जयसेन आचार्य की टीका 1
-जै.ग. 28-3-63/IX/ प्यारेलाल
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