Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१०३८ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
समवाओ पंचण्हं समउ त्ति त्रिणुत्तमेहि पण्णत्तं ।
सो चेव हवदि लोओ तत्तो अमिओ अलोओ खं ॥३॥पंचास्तिकाय अर्थ-पांच जीवादि द्रव्यों का समूह समय है ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है। वही पांचों का समुदाय लोक है, इससे बाहर अप्रमाण अलोकमात्र शुद्धआकाश है।
"लोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादि पदार्था यत्र स लोकः तस्माद्वहि तमनन्तशुद्वाकाशमलोक इति ।" अर्थ-जहाँ जीव आदि पदार्थ दिखलाई पड़े सो लोक है, इसके बाहर अनन्त शुद्धप्राकाश है सो अलोक है।
लोयालोयविभेयं गमणं ठाणं च हेहि ।
अइ गहि ताणं हेऊ किह लोयालोयववहारं ॥१३५॥ (नयचक्र) गमन और स्थिति के हेतुभूत धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य के द्वारा लोक और अलोक का विभाजन किया गया है। यदि धर्म और अधर्मद्रव्य न होते तो लोक और अलोक का व्यवहार ही सम्भव नहीं हो सकता।
"जादो अलोगलोगो तेसि सब्भावदो य गमठिदी ॥१७॥" (पंचास्तिकाय) धमंद्रव्य और अधर्मद्रव्य की सत्ता होने से ही लोक और अलोक का विभाजन हुआ है तथा जीव पुद्गल को गमन व स्थिति होती है।
"लोकालोकद्वयं कस्माज्जातं? ययोधर्माधर्मयोः स्वभावतश्च ।" टीका-धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य के स्वभाव से ही लोक और अलोक इन दोनों की उत्पत्ति होती है।
"धर्माधर्मो विद्य ते, लोकालोकविभागान्यथानुपपत्तेः । जीवादिपदार्थानामेकत्र वृत्तिरूपो लोकः । शुद्ध का. काशवृत्तिरूपोऽलोकः।"
टीका-यदि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य न हों तो लोक और अलोक का विभाग नहीं हो सकता। धर्म और अधर्म विद्यमान हैं, क्योंकि लोक और अलोक का विभाग पाया जाता है । जीवादि सर्व पदार्थों के एकत्र अस्तित्वरूप लोक है, शुद्धएकआकाश से अस्तित्वरूप अलोक है।
__इन पार्षवाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि लोक-अलोक का विभाजन धर्म अधर्मद्रव्यों के कारण है। जा तक जीव आदि पदार्थ पाये जाते हैं वह लोक है। जहाँ पर केवल आकाश ही द्रव्य है वह अलोक है।
-. ग. 23-9-71/VII/रो. ला. मित्तल समय कथंचित् अविभागी व कथंचित् सविभागी है शंका-आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर जाने में परमाणु को जितना काल लगता है, उसको समय कहते हैं । किन्तु तीव्रगति से एकसमय में १४ राजू गमन करता है । १४ राजू के जितने प्रदेश' हैं, समय के उतने भाग हो जाते हैं क्योंकि प्रत्येक प्रदेश को परमाणु भिन्न-भिन्न काल में स्पर्श करता है फिर समय को अविभागी क्यों कहा जाता है।
समाधान-इस विषय में अनेकांत है। समय अविभागी भी है, सविभागी भी है। कोई भी कार्य एक समय से कम काल में समाप्त नहीं होता है, इस अपेक्षा से समय अविभागी है, किन्तु एक समय में १४ राजू गमन
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