Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जन मुख्तार ।
उपलक्षण मात्र हैं। इनके अतिरिक्त अन्य भी आस्रव के अधिकरण हैं, जिनका कथन सूत्र८ व ९ में है। यह सब संक्षेप से कथन है। यदि सूक्ष्मदृष्टि से विस्तारपूर्वक विचार किया जावे तो अधिकरण के अनेक भेद हो सकते हैं। धवलग्रंथ में इस दृष्टि से आस्रव के अधिकरण का कथन नहीं है।
-जं. ग. 27-2-64/1X/पं0 सरनाराम जैन पापपुण्य कथंचित जीव के हैं, कथंचित् पुद्गल के शंका-१० नवम्बर १९६६ के जनसंवेश पृ० ३०९ कालम दो में लिखा है-"शुभाशुभ परिणाम (भाव. पुण्य भावपाप) का कर्ता तो जीव है," किन्तु इसी लेख के फलितार्य में पृ० ३१३ पर लिखा है-"पुण्य और पाप चाहे वे भावात्मक हों और चाहे द्रव्यरूप हों दोनों ही पुदगल की उपज हैं।" क्या इन दोनों कथनों में परस्पर विरोध नहीं है ?
समाधान-शुभाशुभभाव न तो केवल जीव के परिणाम हैं, क्योंकि सिद्धों में नहीं होते और न केवल पुद्गल के हैं, क्योंकि मेज, कुर्सी आदि में नहीं पाये जाते । जीव और पुद्गल की बंध प्रवस्था में होते हैं। अतः कहीं पर उपादान की मुख्यता से शुभाशुभ भावों को जीव के कह दिए जाते हैं और कहीं पर निमित्त की मुख्यता से पुद्गल के कह दिए जाते हैं। शुद्धनिश्चयनय की दृष्टि में पुण्य-पाप अवस्तु हैं।
-जें. ग. 5-10-67/VII/ 2. ला. जन (१) शरीर प्रादि को क्रिया से प्रात्मा को प्रास्रव होता है (२) कथंचित् भावशून्य क्रिया का भी फल (३) दिगम्बरेतर दशन में क्रियानिरपेक्ष भाव माना है
(४) नग्नता मोक्षमार्ग है शंका-भावसहित क्रिया का फल होता है, भावरहित क्रिया का फल नहीं होता; क्या यह कथन सर्वथा सत्य है ? विस्तृत समाधान दीजिये। समाधान-"काय-वा-मनः कर्मयोगः ॥ १॥ सः आस्रवः ॥२॥ शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥ ३॥"
त० सू० अ०६। अर्थात्-शरीर, वचन और मन की क्रिया योग है। वह योग ही मानव है । शुभ योग से पुण्यासव और अशुभ योग से पापासव होता है ।
मन, वचन और काय की क्रिया भावसहित भी होती है और भावशून्य भी होती है, किन्तु कर्मों का आसव हर हालत में होता है और वह कर्मासव कम से कम एक समय की स्थितिवाला अवश्य होता है और अपना फल देकर जाता है।
यदि यह कहा जावे कि 'शरीर वचन मन' पुद्गलमयी हैं, क्योंकि "शरीरवाङ मनः प्राणापानाः पुद्गलामाम् ॥ १९ ॥ त० सू० अ० ५ में इनको पुद्गल का कार्य कहा है और पुद्गलमयी शरीर प्रादि की क्रिया से जीव के पासव नहीं होना चाहिये ( 'शरीर वचन और मन पौद्गलिक है' ) यह सत्य होते हुए भी शरीर आदि का आत्मा के साथ बंध होने के कारण एकत्व होरहा है। जैसा कि सर्वार्थसिदि दूसरे अध्याय सूत्र ७ को टोका
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