Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
।१०४७
सम्माइट्ठी जीवो उवहट्ट पक्यणं तु सहहदि ।
सद्दहवि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥ २७ ॥ गो.जी. सम्यग्दृष्टि जीव जिनेन्द्र भगवान के उपदेश का श्रद्धान करता है, किन्तु किसी तत्त्व को अज्ञानतावश गुरु के उपदेश से विपरीत अर्थ का भी श्रद्धान कर लेता है। 'अरहंत देव का ऐसा ही उपदेश है' ऐसा समझकर यदि कदाचित् किसी पदार्थ का विपरीत श्रद्धान भी करता है तो भी वह सम्यग्दष्टि है. क्योंकि उसने अरहंत का उपदेश समझकर उस पदार्थ का वैसा श्रद्धान किया है।
हेय और उपादेय ये तत्त्व नहीं हैं, किन्तु आपेक्षिक हैं जैसे बहिरात्मा ( मिथ्याष्टि ) को अपेक्षा अन्तरात्मा ( छप्रस्थ सम्यग्दृष्टि ) उपादेय है, किन्तु परमात्मा की अपेक्षा वही अन्तरात्मा हेय है। जैसा कि परमात्मा प्रकाश गाथा १३ को टीका में कहा है
"अत्र बहिरात्मा हेयस्तवपेक्षया यद्यप्यन्तरात्मोपादेयस्तथापि सर्वप्रकारोपादेयभूतपरमात्मापेक्षया स हेय इति तात्पर्याः।"
इसीका भाव ऊपर कहा जा चुका है।
इसीप्रकार निरास्रव अयोगीजिन की अपेक्षा शुभासव हेय है, किन्तु साधक के शुभासव अर्थात् पुण्य उपादेय है । कहा भी है-पुण्यप्रकृतयस्तीर्थपदाविसुखानयः । मूलाचार-प्रदीप पृ० २०० । अर्थात् पुण्यप्रकृतियां तीर्थकर आदि पदों के सुख को देनेवाली हैं। ये पुण्यप्रकृतियाँ सिद्धगति अर्थात् मोक्ष के लिये सहकारी कारण हैं। पंचास्तिकाय गाथा ८५ को टीका में कहा भी है
___"निवानरहितपरिणामोपाजित तीर्थकरप्रकृत्युत्तमसंहननादिविशिष्ट पुण्यरूपधर्मोऽपि सहकारिकारणं भवति ।"
निदानरहित परिणामों से उपाजित तीर्थक र प्रकृति व उत्तमसंहनन आदि विशिष्ट पुण्यरूप कर्म भी सिद्धगति का सहकारी कारण होता है । श्री विद्यानन्द आचार्य ने अष्ट सहस्रीकारिका ८८ की टीका में कहा है
"मोक्षस्यापि परमपूण्यातिशयचारित्र विशेषात्मक पौरूषाभ्यामेव संभवात।" मोक्ष की प्राप्ति भी परम पुण्य और चारित्ररूप पुरुषार्थ के द्वारा ही संभव है।
मोक्ष के लिये जिसप्रकार चारित्रकी आवश्यकता है उसी प्रकार पुण्यकर्मोदय की भी आवश्यकता है ।
पुण्याच्चक्रधरभियं विजयिनी मैन्द्री च दिव्य श्रियं । पुण्यात्तीर्थकरधियं च परमां नःश्रेयसी चाश्नुते ॥ पुण्यादित्यसुभृच्छ्रियां चतसणामा विभवेद भाजनम् ।
तस्मात् पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्याज्जिनेन्द्रागमात् ॥ १२९ ॥ महापुराण सर्ग ३० अर्थ-पूण्य से सबको बिजय करनेवाली चक्रवर्ती की लक्ष्मी मिलती है, इन्द्र की दिव्य लक्ष्मी भी पुण्य से मिलती है, पुण्य से तीर्थकर की लक्ष्मी भी मिलती है, और परम कल्याणरूप मोक्षलक्ष्मी भी पुण्य से मिलती है । यह जीव पुण्य से ही चारों प्रकार की लक्ष्मी का पात्र होता है। इसलिये हे सुधिजन ! तुम लोग भी पुण्य का उपार्जन करो।
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