Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
१०५४ 1
[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
यदि अयोगकेवली के प्रथमसमय में प्रासव माना जावेगा तो उनके उक्त वर्गणाओं का प्रभाव नहीं रहेगा। "वर्गणालम्बननिमित्तो योग आस्रव इष्यते ।" राजवातिक ६।२ । अर्थात-वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाले योग को आसव स्वीकार किया गया है। अयोगकेवली के वर्गणाओं का निमित्त नहीं है अतः वहाँ पर योग भी नहीं और आसव भी नहीं है ।
जेसि ण संति जोगा सुहा सहा पुण्ण-पाव संजणया।
ते होंति अजोइजिणा अणोवमाणंत-बल-कलिया ॥धवल पु. १ पृ० २८०। अर्थात-जिन जीवों के पुण्य और पापकर्म के आसव करने वाले शुभ और अशुभ योग नहीं पाये जाते, वे अनुपम और अनन्तबलसहित प्रयोगीजिन कहलाते हैं।
सयोगकेवली के अन्तसमय के योग से अनन्तरसमय में प्रासव नहीं होता। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि जिससमय में योग है, उसीसमय में पासव है । 'स आसवः' सूत्र से यह बात जानी जाती है, क्योंकि इस सूत्र में योग को पासव बतलाया है।
जिससमय में कषायरूप परिणाम होते हैं, उसीसमय कर्मबन्ध होता है। कर्मबन्ध का लक्षण निम्नप्रकार है
"सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पद्गलानादत्ते स बंधः ॥ ८॥२॥" मोक्षशास्त्र अर्थ-कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बंध है।
यदि कषायरूप परिणाम के अनन्तर समय में बंध माना जावेगा तो दसवें गुणस्थान के अन्तसमय के कषायरूप परिणाम से अनन्तरसमय में अकषायजीव के भी बंध का प्रसंग आ जावेगा। परन्तु बन्ध के लक्षण में कषायसहित जीव के ही बंध होता है, ऐसा कहा गया है। यदि अकषायजीव के बंध स्वीकार कर लिया जावे तो कर्मबन्ध का कभी अभाव नहीं होगा।
इसके अतिरिक्त जो ग्यारहवें गुणस्थान से गिरा है उसके प्रथमसमय में कषाय के होते हुए भी बंध के प्रभाव का प्रसंग आ जावेगा, क्योंकि प्रथमसमय की कषाय से अनन्तर दूसरे समय में बंध होगा। इसप्रकार भी कषायसहित जीव के बंधाभाव हो जाने से उक्त बंध के लक्षण में बाधा आती है।
इससे सिद्ध होता है कि जिस अविभागीसमय में कषाय होती है, उसी अविभागीसमय में कर्मबन्ध भी होता है।
दीपकरूप पर्याय जिस अविभागीसमय में प्रगट होती है उसी अविभागीसमय में पुद्गल की अंधकारपर्याय नष्ट होकर प्रकाशरूप पर्याय उस दीपकरूप पर्याय के प्रभाव से हो जाती है। जिस अविभागीसमय में अग्नि और जल के पात्र की संयोगरूप पर्याय प्रगट होती है, उसी अविभागीसमय में अग्नि के प्रभाव से जल में उष्णता आ जाती है । दर्पण के सामने स्थित में जिस अविभागी समय में जो पर्याय होगी उसी अविभागी समय में दर्पण में स्थित मयूर प्रतिबिम्ब में भी उसके अनुरूप परिणमन हो जाता है।
____एक अविभागीसमय में एकेन्द्रियजीव मरकर चौदहराजू गमन करता है । चौदहराजू के असंख्यातप्रदेश हैं प्रत्येक प्रदेश को उसी एक अविभागीसमय में क्रमशः स्पर्श करता हुआ जाता है। प्रत्येक आकाश-प्रदेश के स्पर्श
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org