Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१०५२ ]
[ ५० रतनचन्द जैन मुख्तार :
"पञ्चमहाकल्याणपूजाजनक बलोक्यविजयकरं यत्तीर्थकरनामपण्यकर्म तत्फलभूता अहंन्तो भवन्ति ।"
पंचमहाकल्याणक को पूजा को उत्पन्न करनेवाला तथा तीनलोक को जीतनेवाला जो तीर्थकरनाम पुण्यकर्म उसके फलस्वरूप अरहन्त होते हैं ।
"अहंन्तः खलु सकलसम्यक्परिपक्व पुण्यकरूपपादपफला एव भवन्ति ।" यहाँ पर भी श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है कि वास्तव में पुण्यरूपी कल्प वृक्ष के फल अरहन्त भगवान् हैं। इसी बात को श्री वीरसेनाचार्य ने धवल ग्रंथराज में कहा है"काणि पुण्ण-फलाणि ? तित्थयर-गणहर-रिसि-चक्कट्टि-बलदेव-वासुदेव-सुर-विज्जाहरितीओ।"
धवल पृ० १० १०५ । अर्थ-पुण्य के फल कौनसे हैं ? तीर्थकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।
श्री विद्यानन्द आचार्य अष्टसहस्री जैसे महान ग्रन्थ में लिखते हैं - "मोक्षस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मक पौरुषाभ्यामेव संभवात् ।" परम पुण्यसे तथा अतिशय चारित्ररूप विशेष पुरुषार्थ से मोक्ष होता है। यहाँ पर भी चारित्र के साथ परमपुण्य को मोक्ष का कारण स्वीकार किया गया है।
श्री पं० जयचन्दजी ने भी आप्तमीमांसा की टीका में लिखा है- 'मोक्ष भी होय है सो परमपुण्य का उदय अर चारित्र का विशेष आचरण रूप पौरुष ते होय है। श्री देवसेन आचार्य भी भावसंग्रह में कहते हैं
सम्माविट्ठी पुण्णं ण होइ संसार कारणं णियमा ।
मोक्खस्स होइ हेउं जइ वि णियाणं ण सो कुणई ॥ ४०४ ॥ सम्यग्दृष्टि के द्वारा किया हुआ पुण्य संसार का कारण कभी नहीं होता, यह नियम है। यदि सम्यग्दृष्टि पुरुष के द्वारा किये हुए पुण्य में निदान न किया जाय तो वह पुण्य नियम से मोक्ष का ही कारण होता है।
तम्हा सम्माविट्ठी पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवई।
इय णाकण गिहत्थो पुण्णं चायरउ जत्तेण ॥ ४२४ ॥ सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष का कारण होता है। यही समझकर गृहस्थों को यत्नपूर्वक पुण्य का उपार्जन करते रहना चाहिये।
जब भी परहंतपद प्राप्त होगा वह उच्चगोत्र, वज्रवृषभनाराच संहनन, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति नामकर्म तथा मनुष्यायु के उदय में होगा। इनके अभाव में अरहंतपद प्राप्त नहीं हो सकता। अतः इन पुण्यप्रकृतियों के उदय के साथ परहंतपद का अन्वय व्यतिरेक घटित हो जाने से कार्यकारणभाव सिद्ध हो जाता है। कहा भी है
"जेण विणा जं ण होवि चेव तं तस्स कारणं ।" धवल पु. १४ पृ० ९० ।
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