Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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का भिन्न-भिन्नकाल होते हुए भी सबका काल मिलकर एकसमय है अर्थात् LEAST UNIT OF TIME है। केवलज्ञानी प्रत्येक आकाशप्रदेश के स्पर्श का भिन्न-भिन्न काल प्रत्यक्ष देखते हैं और छद्मस्थ आगमप्रमाण तथा अनुमान से परोक्षरूप से जानता है । इसप्रकार एक अविभागीसमय में अनेकों कार्य होने में कोई बाधा नहीं आती है फिर भी एक समय से कोई भी जघन्य काल नहीं है ।
मरकर ऋजुगति में उत्पन्न होने वाला जीव उसी एक अविभागीसमय में चौदहराजू गमनकर उत्पन्न हो आहारवर्गणाओं को ग्रहणकर उनसे शरीर, इन्द्रियादि पर्याप्ति प्रारम्भ कर लेता है।
ग्यारहवें गुणस्थान से मर कर देवों में उत्पन्न होनेवाला मनुष्य प्रथमसमय में चारित्रमोहनीयकर्म की प्रकृतियों का अपकर्षणकर उदय में ले पाता है। अपकर्षण होना और उदय होना तथा उदय के अनुरूप प्रात्मपरिणाम होना ( ग्यारहवें से चतुर्थ गुणस्थान में आ जाना ) ये सब कार्य एक अविभागीसमय में होते हैं।
समय इस अपेक्षा से अविभागी है कि उससे जघन्य अन्य कोई काल नहीं है, किन्तु सर्वथा अविभागो नहीं है। यदि सर्वथा अविभागी मान लिया जाये तो एकान्तवाद का प्रसंग पा जावेगा।
परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा । जइणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहचि वयणादी॥ प्रवचनसार टीका
अर्थ-परसमयों ( मिथ्यामतियों ) का वचन 'सर्वथा' कहा जाने से वास्तव में मिथ्या है। और जैनों का वचन कथंचित् ( अपेक्षासहित ) कहा जाने से वास्तव में सम्यक् है ।
अनेक कार्यों की अपेक्षा से समय का ज्ञान द्वारा विभाजन भी किया जा सकता है अन्यथा एकसमय में चौदहराजू के असंख्यात आकाशप्रदेशों को क्रमश: स्पर्श करके गमन नहीं बन सकता है। जिसप्रकार परमाणु कथंचित् निरवयव प्रौर कथंचित् सावयव हैं उसोप्रकार समय भी कथंचित् अविभागी और कथंचित् सविभागो है। यदि कोई एकान्तवादी परमाणु को सर्वथा निरवयव मानता है तो उसको आर्ष ग्रंथों पर अथवा जिनवाणी पर श्रद्धा नहीं है।
"पज्जवटियणाए अवलंबिज्जमाणे सिया एगदेसेण समागमो । ण च परमारगणमवयवा गस्थि, उवरिमहेदिममज्झिमोवरिमोवरिमभागाणमभावेपरमाणुस्स वि अभावप्पसंगादो। ण च एवे भागा संकप्पियसरूवा; उड्डाधोमज्झिमभागाणं उरिमोवरिमभागाणं च कप्पणाए विणा उवलंभादो। ण च अवयवाणं सम्वत्थ विभागण होदव्वमेवे त्ति णियमो, सयलवत्यूणममावप्पसंगादो। ण च भिष्णवमाणगेज्झाणं भिण्ण दिसाणं च एयत्तमस्थि, विरोहादो। ण च अवयवेहि परमाणू णारद्धो, अवयवसमूहस्सेव परमाणुत्तदंसणादो। ण च अवयावाणं संजोगविणासेण होदश्वमेवे त्ति णियमो, अणादिसंजोगे तवभावादो।" धवल पु० १४ पृ० ५६-५७ ।
अर्थ-पर्यायाथिकनय का अवलम्बन करने पर कथंचित् एकदेशेन समागम होता है। परमाणु के अवयव नहीं होते, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि उसके उपरिम, अधस्तन, मध्यम और उपरिमोपरिम भाग न हों तो परमाणु का ही अभाव प्राप्त होता है। ये भाग कल्पित होते हैं यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि परमाणु में ऊध्र्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग तथा उपरिमोपरिम भाग कल्पना के बिना भी उपलब्ध होते हैं। तथा परमाणु के अवयव हैं इसलिये उनका सर्वत्र विभाग ही होना चाहिये, ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि इस तरह मानने पर तो सब वस्तुओं के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। जिनका भिन्न-भिन्न प्रमाणों से ग्रहण होता है और जो भिन्नभिन्न दिशावाले हैं। वे एक हैं यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध पाता है। प्रवयवों
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