Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : श्री कुन्दकुन्वाचार्य ने भी कहा है-"पुण्णफला अरहता।" अर्थात् पुण्यकर्म का फल अरहंत पद है। श्री जयसेन आचार्य ने भी कहा है।
"यत्तीर्थकरनाम पुण्यकर्म तत्फलभूता अहंन्तो भवन्ति ।" श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसार में शुभोपयोग की मुख्यता व गौणता बतलाते हैं
एसा पसत्थभूवा समणाणं वा पुणा घरत्थाणं ।
चरिया परेति मणिवा ता एव परं लहदि सोक्खं ॥ २५४ ॥ अर्थ-यह प्रशस्तभूत चर्या ( शुभोपयोग ) श्रमणों के होती है, किन्तु गृहस्थों के तो मुख्य होती है, क्योंकि इस प्रशस्तभूत चर्या के द्वारा गृहस्थ परमसौख्य अर्थात् निर्वाणसौख्य को प्राप्त होता है।
श्री अमृतचन्द्राचार्य इंधन के दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-जैसे इंधन को स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है और इसलिए वह क्रमशः जल उठता है उसीप्रकार गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धास्मा का अनुभव होता है और क्रमशः परमनिर्वाण सौख्य को प्राप्त कर लेता है।
इन पार्षग्रन्थों से स्पष्ट है कि पुण्यकर्म व शुभोपयोग मोक्षमार्ग में सहकारी कारण हैं अतः वे सर्वथा हेय नहीं हैं । अतः पुण्यासूव कथंचित उपादेय है कथंचित् हेय है ऐसा श्रदान करने वाला सम्यग्दृष्टि है।
-. ग. 15-1-70/VII/ प. प. जैन स्त्रीपर्याय ( स्त्रीवेद ) के प्रास्रव के कारण तथा उसके नाश का उपाय शंका-स्त्रीपर्याय कौन से पाप से अथवा किन-किन भावों से बन्ध करने पर मिलती है ? स्त्रीपर्याय के नाश करने का मुख्य उपाय क्या है ?
समाधान-असत्य बोलने की आदत, प्रतिसन्धानपरता ( घोखा, छल, कपट ) दूसरों के छिद्र ढूंढना और बढ़ा हुमा राग आदि स्त्रीवेद के पासव हैं। कहा भी है
"मलोकामिछायितातिसन्धानपरत्वपररन्ध्रप्रेक्षित्वप्रवृतरागाविः स्त्रीवेवनीयस्य ।" सर्वार्थ सिद्धि ६।१४। इसका अर्थ ऊपर आ चुका है।
स्त्रीपर्याय में उत्पन्न न होने का मुख्य उपाय सम्यग्दर्शन है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिजीव मरकर स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है ऐसा पार्षवचन है
छसु हेढिमासु पुढवी जोइसवणभवण सव्वइत्थीसु । रणेदेसु समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी कु जो जीवो ॥१३३॥
इत्यार्षात धवल पु०१ पृ० २०९ एवं धवल ११३३९ अर्थ-जो सम्यग्दृष्टिजीव होता है, वह प्रथमपृथिवी के बिना नीचे की छह पृथिवियों में, ज्योतिषी व्य. स्तर, भवनवासी देवों में और सर्वप्रकार की स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है । यह कथन पूर्व बद्धायुष्क की अपेक्षा है। पूर्व अबढायुष्क की अपेक्षा कथन निम्न प्रकार है
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