Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व पोर कतित्व ]
[ १०४३ जीव के विभाव परिणमन में द्रव्यकर्म ही हेतु है शंका-जीव में विभाव परिणमन पुगल-द्रव्यकर्म के बंध के कारण है या अन्य कोई कारण है ?
समाधान-जब तक दूसरे द्रव्य के साथ बंध न हो उस समयतक कोई भी द्रव्य अशुद्ध नहीं हो सकता है । स्वर्ण का किट्रिमा के साथ बंध होने से स्वर्ण अशुद्ध होता है। उसीप्रकार जीव का द्रव्यकर्म के साथ बंध होने से जीव अशुद्ध होता है । अकेला जीव अशुद्ध नहीं हो सकता और न उसमें रागद्वेष आदि विभाव परिणति हो सकती है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । रंगिज्जवि अण्णेहि दु सो रत्तावीहिं दम्वेहि ॥ २७८ ॥ एवं गाणी सुद्धो १ सयं परिणमइ रायमाईहिं ।
राइज्जदि अण्णेहिं तु सो रागादीहिं दोसेहिं ।। २७९ ॥ अर्थ-जैसे स्फटिकमणि पाप शुद्ध है वह ललाई आदि रंगस्वरूप आप तो नहीं परणमती, परन्तु वह स्फटिकमणि आप दूसरे लालआदि द्रव्यों से मेल होनेपर ललाईआदि रंगस्वरूप परणमती है। इसीप्रकार जीव प्राप शुद्ध है, वह राग आदि विभावरूप आप नहीं परिणमता, परन्तु अन्य राग आदि दोषरूप ( क्रोध, मान, माया, लोभ कषायरूप ) द्रव्यकर्मों से रागादि विभावरूप किया जाता है।
इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है-जैसे अकेला स्फटिकमणि परिणमन स्वभाव होने पर भी दूसरे द्रव्य के बिना आप लालरूप नहीं परिणमता, परन्तु परद्रव्य का मेल होने पर स्फटिकमणि अपने स्वभाव से च्युत होकर लालरंग आदि विभावरूप परिणमता है, क्योंकि अपने विभावरूप परिणमने में स्वयं निमित्त कारण नहीं है। इसीप्रकार अकेला आत्मा परिणामस्वरूप होने पर भी आप ही रागादि विभावरूप नहीं परिणमता, क्योंकि अपने रागादि विभाव के लिये आप ही कारण नहीं है। परन्तु पुद्गलरूप द्रव्यकर्म के मेल से प्रात्मा अपने स्व: से च्युत होकर रागादि विभावरूप परिणमता है।
इससे सिद्ध है कि जीव के विभावरूप परिणमन में द्रव्यकर्म कारण है, क्योंकि समस्त द्रव्यकर्म का क्षय हो जाने पर जीव मुक्त हो जाता है अर्थात् जीव का शुद्ध परिणमन हो जाता है और विभावरूप परिणमन का प्रभाव हो जाता है।
जं.ग.24-7-67/VII/ ज. प्र. म. कु.
प्रास्त्रव के अधिकरण शंका-ज्ञानपीठ राजवार्तिक दूसरा भाग पृ० ५१३ पंक्ति २२, २३, २४ में अधिकरण के १० भेद बतलाये हैं उनमें ७ अजीव अधिकरण और ३ जीव अधिकरण जान पड़ते हैं। ये भेद कुछ समझ में नहीं आये। कृपया स्पष्ट करें। हमारे विचार से तो अनन्त भेव होने चाहिए। क्या इन भेदों का धवलादि ग्रन्थों में भी कहीं कपन आया है ?
समाधान-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ सूत्र ७ में "जीव और अजीव ये आस्रव के अधिकरण हैं" ऐसा कहा गया है। राजवातिक टीका में इन दोनों अधिकरणों के १० भेद इसप्रकार कहे हैं-विष, लवण, क्षार, कटुक, अम्ल, स्नेह. अग्नि और खोटेरूप से युक्त मन, वचन, काय ।' इनमें सात अचेतन और तीन चेतन हैं। ये १० भेद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org