Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
ध्यक्तित्व और कृतित्व ]
[१०३७
परिकर्म के इन आर्ष वचनों से जाना जाता है कि आकाशद्रव्य सबसे बड़ा है अतः वह व्यापक है।
-. ग. 23-9-71/VII/ रो. ला. मित्तल अवकाशदान आकाश का ही असाधारण गुण हो सकता है शंका-अवकाश देना आकाश का ही असाधारण गुण क्यों ? क्योंकि अन्य द्रव्य भी परस्पर एक दूसरे को स्थान देते हैं। सिखों के अवगाहनत्व गुण का क्या प्रयोजन है ?
समाधान-इस प्रकार की शंका सर्वार्थसिद्धि में भी उठाई गई है। उसका समाधान निम्न प्रकार किया गया है
"यद्यवं नेदमाकाशस्थासाधारणं लक्षणम, इतरेषामपि तत सद्धावादिति ? तन्न, सर्वपदार्थाना साधारणावगाहनहेतत्वमस्यासाधारण लक्षणमिति नास्ति दोषः। सर्वार्थ सिद्धि ५॥१८ ।
"यदि धर्मादीनां लोकाकाशमाधारः आकाशस्यक आधार इति ? आकाशस्य नास्त्यन्याधारः। स्वप्रतिष्ठमाकाशम् । यद्याकाशं स्वप्रतिष्ठम् ; धर्मादीन्यपि स्वप्रतिष्ठान्येव । अथ धर्मादीनामन्य आधारः कल्प्यते, आकाशस्याप्यन्य आधारः कल्प्यः । तथा सत्यनवस्थाप्रसङ्ग इति चेत् ? नैष दोषः नाकाशावन्यदधिकपरिमाणं द्रव्यमस्ति यत्राकाशं स्थितिमित्युचेत सर्वतोऽनन्तं हि तत्।" सर्वार्थसिद्धि ११२ ।
अर्थ-यदि ऐसा है तो 'अवकाशदान' आकाश का असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूसरे द्रव्यों में भी अवकाशदान पाया जाता है ? यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि आकाशद्रव्य सब पदार्थों को अवकाश देने में साधारण कारण है, यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिये कोई दोष नहीं है।
यदि धर्मादिकद्रव्यों का लोकाकाश प्राधार है तो आकाश का क्या प्राधार है ? आकाश का अन्य आधार नहीं है, क्योंकि प्राकाश स्वप्रतिष्ठ है। यदि आकाश स्वप्रतिष्ठ है तो धर्मादिकद्रव्य भी स्वप्रतिष्ठ होने चाहिये। यदि धर्मादिकद्रव्यों का अन्य आधार माना जाता है तो प्राकाश का भी अन्य प्राधार मानना चाहिये और ऐसा मानने पर अनवस्था दोष प्राप्त होता है। यह दोष देना ठीक नहीं है, क्योंकि आकाश से अधिक परिमाणवाला अन्य द्रव्य नहीं है, वह सबसे अनन्त है।
यहाँ पर यह बतलाया गया है कि यदि आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों में भी 'अवकाशदान' असाधारण गुण माना जायगा तो उनको भी समस्त द्रव्यों को अवकाश देना चाहिये, किन्तु वे समस्त आकाशद्रव्य को अवकाश देने में असमर्थ है, क्योकि क्षेत्र की अपेक्षा प्राकाश से बडा अन्य नहीं है। आकाश ही सबसे बड़ा द्रव्य होने से आकाश तो अन्य द्रव्यों को अवकाश देता है, किन्तु अन्यद्रव्य सम्पूर्ण आकाश को अवकाश देने में असमर्थ हैं। प्रतः अवकाशदान अन्यद्रव्यों का असाधारण ण नहीं हो सकता है, मात्र आकाश का ही है।
-जै.ग. 1-6-72/VII/र.ला. जैन
लोक-अलोक की व्याख्या तथा इनके विभाजन का हेतु शंका-लोक और अलोक की व्याख्या क्या है और इनके विभाजन का क्या कारण है ?
समाधान-प्राकाश एक अखंडद्रव्य है । उस आकाश के जितने क्षेत्र में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और कालद्रव्य पाये जाते हैं वह लोकाकाश है और उससे आगे अलोकाकाश है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org