Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १०३५
विचार करलें। हमारी तो जिनआगम पर ऐसी दृढ़ श्रद्धा होनी चाहिये कि स्वप्न में या भूल में भी कोई वाक्य आगमविरुद्ध न निकले।
-ज.सं.7-8-58/V/ हुलासचन्द
धर्मादिक द्रव्यों के कार्य शंका-धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य अजीव होते हुए भी अरूपी हैं। इन चारों में से प्रत्येक द्रव्य का कार्य भिन्न भिन्न है, किन्तु इनका कार्य जीव और पुद्गलद्रव्य की तरह अनुभव में नहीं आता ?
समाधान-धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्य प्ररूपी हैं अतः ये द्रव्य इन्द्रियगोचर तो हो नहीं सकते, किन्तु इनके कार्यों से इनका अनुमान किया जा सकता है। अतः इनके अस्तित्व का ज्ञान होता है। जीव और पुद्गल यद्यपि सक्रिय द्रव्य हैं, किन्तु बिना धर्मद्रव्य के उनकी क्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन में सहायक है जिसप्रकार जल मछली के चलने में सहायक है। धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के चलने में प्रेरक कारण नहीं है जिसप्रकार जल मछली के चलने में प्रेरक कारण नहीं है। यदि धर्मद्रव्य प्रेरक कारण होता तो कोई भी जीव या पुद्गल स्थिर न पाया जाता । शक्ति होते हए भी धर्मद्रव्य के बिना जीव और पुद्गल गमन भी नहीं कर सकते । जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव है सिद्ध भगवान में अनन्त शक्ति है, किन्तु धर्मद्रव्य के अभाव के कारण अलोकाकाश में गमन नहीं कर सकते। धर्मद्रव्य के अभाव के अतिरिक्त अन्य कोई भी कारण नहीं जो अनन्त शक्तिवाले सिद्ध भगवान के गमन को रोक दे, क्योंकि सिद्ध भगवान में कर्मों का सर्वथा अभाव है।
तत्वार्थसूत्र अध्याय ५ सूत्र १७ 'गतिस्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः। में जो 'उपग्रह' शब्द आया है उसका अर्थ 'द्रव्यों की शक्ति का आविर्भाव करने में कारण होना है राजवातिक अ. ५ सूत्र १७ वार्तिक ३। इसी सूत्र को वार्तिक ३१ में कहा है- “जैसे अकेले मृत्पिड से घड़ा उत्पन्न नहीं होता; उसके लिये कुम्हार, चक्रचीवर आदि अनेक बाह्यकारण अपेक्षित होते हैं उसी तरह गति और स्थिति भी अनेक बाह्य कारणों की अपेक्षा करती है। इनमें सब की गति और स्थिति के लिये साधारणकारण क्रमशः धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य होते हैं। इसतरह अनुमान से धर्म और अधर्मद्रव्य प्रसिद्ध हैं।" पंचास्तिकाय गाथा ८७ में कहा गया है कि लोक और अलोक का विभाग ही धर्म और अधर्म के कारण हुआ है। यदि धर्म और अधर्मद्रव्य गति व स्थिति में कारण न होते तो अलोकाकाश में भी जीव और पुद्गल पाये जाते पंचास्तिकाय गाथा ९२, ९३, ९४ व उनकी टीका।
इसीप्रकार अवगाहनहेतुत्वगुण के द्वारा आकाशद्रव्य का भी अनुमान होता है। कालद्रव्य का भी वर्तनाहेतुत्व गुण के द्वारा अनुमान होता है। यद्यपि परिणमन करने की शक्ति प्रत्येकद्रव्य में है, परन्तु यदि कालद्रव्य न होता तो उन द्रव्यों की परिणमनशक्ति व्यक्त नहीं हो सकती थी। कालद्रव्य को 'समय' पर्याय है असंख्यात समयों की आवलि और संख्यात आवलियों का एक मुहर्त होता है। यह काल अनुभव में आता है। इसप्रकार काल का भी अनुमान होता है।
-जं. ग. 4-4-63/IX/ शान्तिलाल प्राकाश सर्वव्यापक तथा दो भेदवाला कैसे है ? शंका-आकाश सर्व व्यापक कैसे है ? यदि आकाश सर्वव्यापक है तो उसके लोकाकाश और अलोका. काश ऐसे बो खण्ड नहीं हो सकते, क्योंकि सर्वव्यापक अखण्ड होता है ?
समाधान-आकाश प्रखण्ड एकद्रव्य है । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा भी है
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