Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
'हर समय को पर्याय स्वतन्त्रनिष्कारण है' ऐसा प्रतीति करने के बाद विकारसमय में निमित्त की हाजरी का ज्ञान कराने के लिये औदयिकादिभाव दर्शाया है-परन्तु क्रोध जीव की योग्यता से होता है इसलिये क्रोधादिभाव पारिणामिकभाव का विकार है इससे वाको पारिणामिकभाव कहते हैं । 'क्रोध जीव का त्रिकालिकस्वभाव है' ऐसा यहाँ जताया नहीं है, परन्तु क्रोध कोई परकारण से होता नहीं है, जीव को अपनी लायकात से होता है ऐसा बताने के लिये उसको पारिणामिकभाव कहा है। इस पर शंका होती है-(अ) क्या क्रोधादिकषाय मात्र वास्तविक में जीव के पारिणामिकभाव हैं ? (आ) क्या कर्मोदय बिना भी जीव स्वतन्त्ररूप से इन क्रोधाविकषाय भावों को कर सकता है ? (क) क्या जीव की कषायरूप की पर्याय परकारण से नहीं होती अथवा निष्कारण हैं ? (ख) क्या क्रोधादिकभाव कहने मात्र से औदयिकभाव हैं वास्तव में औदयिक भाव नहीं । किन्तु पारिणामिकभाव हैं ?
समाधान-(अ)-क्रोधादिक कषायरूप भाव जीव के पारिरणामिकभाव नहीं है, क्योंकि इन क्रोधादिभावों में पारिणामिकभाव का लक्षण घटित नहीं होता है। जिन भावों के होने में मात्र प्रात्मद्रव्य ही कारण हो, अन्य कोई कारण न हो उसको पारिणामिकभाव कहते हैं ( पंचास्तिकाय गाथा ५६ टीका; सर्वार्थसिधि अध्याय २ सूत्र १; राजवातिक अध्याय २ सूत्र १ वार्तिक ५ ) किन्तु क्रोधादिभाव चारित्रगुण की वैभाविकपर्याय है और वैभाविकपर्याय स्वपर निमित्तिक होते हैं अतः क्रोधादिभाव पारिणामिक नहीं हैं। पारिणामिकभाव अनादि-अनन्त, निरुपाधि और स्वाभाविक होता है । ( पंचास्तिकाय गाथा ५८ टीका), किन्तु क्रोधादिभाव सादिसांत हैं सोपाधिक हैं व वैभाविक हैं अतः क्रोधादिकभाव पारिणामिक नहीं हैं। पारिणामिकभाव कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं ( सर्वार्थसिद्धि अध्याय २ सूत्र ७, राजवातिक अध्याय २ सूत्र ७ वार्तिक २) किन्तु क्रोधादिभाव बिना कर्मोदय के होते नहीं हैं ( पंचास्तिकाय गाथा ५८ व उभय टीका) अतः क्रोधादि पारिणामिकभाव नहीं हैं। इन उपयुक्त आगमप्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि क्रोधादि पारिणामिकभाव नहीं हैं। श्री समयसार गाथा ७४ में बतलाया है कि ये कषायादिक प्रास्रवभाव जीव के साथ निबद्ध हैं, अध्रव हैं, अनित्य है, अशरण है, दुःखरूप हैं. दुःख ही इनका फल है।' अतः ये क्रोधादिकषायभाव जीव के पारिणामिकभाव कैसे हो सकते हैं ?
____समाधान-(प्रा)-जीव कर्मोदय के बिना स्वतन्त्र रूप से इन क्रोधादिभावों को नहीं कर सकता। द्रव्यक्रोध के उदय के निमित्त बिना भी यदि जीव भावक्रोधादिरूप परिणम जावे तो द्रव्याधादि उदय के निमित्त के बिना मुक्त जीवों के भी भावक्रोध हो जावेगा, किन्तु ऐसा स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि आगम से विरोध आवेगा ( समयसार गाथा १२१-१२५ श्री जयसेनाचार्य को टीका) कषायरूप परिणमन करने की शक्ति स्वयं जीव की है,किसी अन्य ने यह शक्ति नहीं दी है, किन्तु वह शक्ति परसापेक्ष है। यदि पर निरपेक्ष हो तो क्रोधादिकषाय का कभी भी प्रभाव नहीं होगा। कहा भी है-समर्थस्य ? करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात् ( परीक्षामुख ६/६३ ) तस्याकारकत्वे सर्वदा सर्वत्र सर्वस्य सद्भावानुषङ्गः, परापेक्षारहितत्वादिति ( अष्टसहस्री )
___संसार-प्रवस्था में जीव कर्मबन्धनबद्ध होने के कारण स्वतन्त्र भी नहीं है, किन्तु परतन्त्र है । जो परतन्त्र है वह स्वतन्त्ररूप से क्रोधादि कसे कर सकता है। कहा भी है-जो जीव को परतन्त्र करते हैं अथवा जीव जिनके द्वारा परतन्त्र किया जाता है उन्हें 'कर्म' कहते हैं। क्रोधादि जीव के परिणाम हैं इसलिये वे परतन्त्रतारूप हैं। परतन्त्रता में कारण नहीं। द्रव्यकर्म जीव में परतन्त्रता में कारण है जैसे कि जड़ । प्रसिद्ध है कि कर्म वही है जो आत्मा को पराधीन बनाता है। यदि आत्मा को पराधीन न बनाने पर उसको कर्म माना जाय तो हर कोई भी पदार्थ कर्म हो जायगा ( आप्तपरीक्षा पृष्ठ २४६-२४८ वीरसेवा मंदिर से प्रकाशित )।
समयसार कलश नं० १७४ में यह प्रश्न किया गया कि 'रागादि बंध के कारण कहे गये तो इस रागादि का निमित्त प्रात्मा है या अन्य कोई है ?' इसके उत्तर के स्वरूप गाथा २७९ में कहा गया-आत्मा शुद्ध होने से
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