Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व प्रौर कृतित्व ]
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ही बतलाता है। इसलिये यह निश्चित हआ कि परद्रव्य निमित्त है और आत्मा के रागादिभाव नैमित्तिक हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो द्रव्यअप्रतिक्रमण और द्रव्यअप्रत्याख्यान का कर्तृत्व के निमित्तरूप का उपदेश निरर्थक ही होगा और निरर्थक होने पर एक ही आत्मा को रागादिभावों का निमित्तत्व आ जायेगा, जिससे नित्यकर्तृत्व का प्रसंग आ जायेगा, जिससे मोक्ष का अभाव सिद्ध होगा। इसलिये परद्रव्य ही आत्मा के रागादिभावों का निमित्त है और ऐसा होने पर, यह सिद्ध हुआ कि आत्मा रागादि का अकारक ही है।
इन मागमप्रमाणों से यह सिद्ध हुआ कि आत्मा में परिणमन करने की शक्ति है जिसका नाश नहीं होता। जब तक मोहनीयकर्म का उदय है और नोकर्म का संयोग है उससमय तक जीव का परिणमन रागादिरूप होता है और सिदों में उक्त परद्रव्य का निमित्त नहीं है अतः सिद्ध जीवों का परिणमन रागादिरूप न होकर स्वाभाविक है। सिद्धों में परिणमन करने की शक्ति है और परिणमन भी है, किन्तु परद्रव्य का निमित्त न होने से रागादि तथा मिथ्यात्वरूप परिणमन करने की शक्ति नहीं है।
-ज.सं. 20-6-57/ ...... | दि. जैन स्वाध्याय मण्डल
१. सिद्धों में वैभाविक पर्याय शक्ति नहीं है
२. मात्र ज्ञान से बंधाऽभाव नहीं होता शंका-आत्मप्रबोधनामक पुस्तक में कहा गया है कि 'यद्यपि वैभाविकशक्ति सिद्धों में द्रव्यरूप से है, किंतु मेवज्ञान होनेपर बंध नहीं होता है। क्या सिद्धों में वैमाविकशक्ति है ? यदि मात्र भेद-ज्ञान हो जाने पर ही कर्मबंध एक जाता है तो चारित्र की क्यों आवश्यकता रहेगी?
समाधान-बन्ध के कारण द्रव्य अशुद्ध हो जाता है और अशुद्धद्रव्य में विभावरूप परिणमन होता है । बन्ध का अभाव हो जाने पर द्रव्यशुद्ध हो जाता है और विभावरूप परिणमन का अभाव होकर स्वभावरूप परिणमन होने लगता है । कहा भी है
"समानजातीया असमानजातीयाश्च अनेकद्रव्यात्मिकैकरूपा द्रव्यपर्याया जीवपुदगलयोरेव भवन्ति अशुद्धा एव भवन्ति । कस्मादिति चेत् ? अनेकद्रव्याणां परस्पर-संश्लेषरूपेण संबंधातू ।" पंचास्तिकाय गा. १६ टीका
समानजातीय तथा असमानजातीय अनेक द्रव्यों की एकरूप द्रव्यपर्यायें जीव और पुद्गलों में ही होती हैं तथा ये अशुद्ध (विभावरूप) ही होती हैं, क्योंकि भनेक द्रव्यों के परस्पर संश्लेषसम्बन्ध अर्थात् बंध से हुई हैं।
किसी भी आर्ष ग्रन्थ में वैभाविकद्रव्यशक्ति का कथन नहीं है । अशुद्धद्रव्यों का विभावरूप परिणमन होने से वैभाविकपर्यायशक्ति सम्भव हो सकती है। अशुद्धअवस्था का प्रभाव हो जाने पर वैभाविकपर्यायशक्ति का भी प्रभाव हो जाता है। "आनवनिरोधः संवरः ॥१॥ सगुप्ति समितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रः ॥२॥ तपसा निर्जरा घ।"
-तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९ श्री उमास्वामिभाचार्य ने तत्वार्थसूत्र की रचना करके सागर को गागर में बन्द कर दिया है। उस तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त तीन सूत्रों द्वारा चारित्र को संवर ( कर्मों का बन्ध रुक जाना ) तथा निर्जरा ( पुराने को का झड़ना ) का कारण कहा है।
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