Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
उससे है। जीव व पुद्गल में ही विभावरूप परिणमन करने की शक्ति है अतः इन दोनों ही द्रव्यों को सक्रिय कहा है । परिस्पन्दरूप शक्ति को श्री अमृतचन्द्राचार्य ने स्वभाव कहा है, किन्तु श्री अकलंकस्वामी ने इसे शक्ति तो कहा है परन्तु स्वभाव स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि यह वैभाविक शक्ति है। इस बात को वार्तिक १५ में स्पष्ट करते हैं
शरीरवियोगे निष्क्रियत्वप्रसङ्ग इति चेत्, न, अभ्युपगमात् ॥ १५ ॥ स्यान्मतम् - यस्य कामं णशरीरसम्बन्धे सति तत्प्रणालिकापादिता क्रिया आत्मनोऽभिप्रेता तस्याष्टविधकर्मसंक्षये शरीरवियोगात् अशरीरस्थात्मनो निःक्रियत्वं प्रसक्तमिति; तन्न, frकारणम् ? अभ्युपगमात् कारणाभावात् कार्याभाव इति । कर्मनाकर्मनिमित्ता या क्रिया सा तदभावे नास्तीति निष्क्रियत्वं मुक्तस्याभ्युपगम्यतेऽस्माभिः । अथवा परनिमित्त क्रियानिवृत्तावपि स्वाभाविकी मुक्तयोग तिरभ्युपगम्यते प्रदीपवत् । अर्थ- शरीर का वियोग हो जाने पर निष्क्रियपने का प्रसंग आ जायगा ! यदि ऐसा कहते हो तो यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यह बात हमें स्वीकार है ।। १५ ।। जो कार्मणशरीर का सम्बन्ध रहने पर आत्मा में क्रिया होती है ऐसा मानते हैं उनके मत में आठों प्रकार के कर्मों का क्षय होने पर जिससमय आत्मा शरीर से जुदा होकर अशरीरी होगा उससमय वह निष्क्रिय माना जायगा ? ऐसा नहीं है, क्योंकि यह बात हमें इष्ट है । कारण के अभाव में कार्य का प्रभाव होता है । कर्म व नोकर्म के निमित्त से होनेवाली क्रिया कर्म - नोकर्म के अभाव में नहीं होती, अतः मुक्त जीवों को हम निष्क्रिय मानते ही हैं । जिसप्रकार दीपक की लो वायु का निमित्त दूर हो जाने पर ऊपर को स्वभाव से जाती है उसी प्रकार मुक्त जीवों के भी कर्मों का नाश हो जाने से परनिमित्तक क्रिया तो नहीं हो सकती, किन्तु स्वभाव सिद्ध ऊर्ध्वगमनरूप क्रिया मानी जाती है । इसप्रकार परनिमित्त क्रिया की अपेक्षा से शुद्धजीव का स्वभाव निष्क्रिय है, किन्तु स्वाभाविकक्रिया की अपेक्षा शुद्धजीव का स्वभाव सक्रिय है; ऐसा अनेकान्त से सिद्ध हो जाता है ।
--. सं. 10-1-57/VI-VII / दि. ज. स. एत्मादपुर
पुद्गल : परमाणु
अनादि परमाणु कोई नहीं
शंका-क्या ऐसे शुद्धपुद्गल भी हैं जो अनादि से शुद्ध ही हैं और अनन्तकाल तक शुद्ध ही रहेंगे ?
समाधान - जो शुद्धपुद्गल है वह परमाणुरूप है । कहा भी है- शुद्धपरमाणुरूपेण अवस्थानं स्वभावद्रव्यपर्याय: ।" ( पंचास्तिकाय गाथा ५ पर श्री जयसेनाचार्य कृत टीका ) कोई भी पुद्गल परमाणु अनादिकाल से परमाणुरूप स्थित रहा हो, ऐसा नहीं है । " न चानाविपरमाणुर्नाम कश्चिदस्ति ।" ( राजवार्तिक अध्याय ५ सूत्र २५ वार्तिक १० टीका ) अर्थात् अनादिकाल से अब तक परमाणु की अवस्था में ही रहने वाला कोई अणु नहीं है । अतः ऐसा कोई भी शुद्ध पुद्गल नहीं है जो अनादि से शुद्ध ही हो और अनन्तकाल तक शुद्ध ही रहेगा । "
नहीं
१. परन्तु श्लोकवार्तिक २/१७3 में लिखा है "अनन्तानन्त परमाणु ऐसे हैं जो स्कन्ध अवस्था में प्राप्त
हुए
हैं, वे अनादि से परमाणुरूप हैं ।" परन्तु वहाँ यह कथन भाषा टीका में है ।
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- जै. ग. 5-4-62 / / नानकचन्द
[ भाषाटीकाकार - माणिकचन्दजी कांदेय, न्यायाचार्य ]- सम्पादक
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