Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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समाधान - परमाणु के बन्ध का कारण स्निग्ध व रूक्ष गुण है । कहा भी है
" स्निग्धरूक्षत्वा बन्धः ||५|३|| ” ( तस्वार्थ सूत्र )
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
स्निग्धत्व और रूक्षत्व के कारण पुद्गलपरमाणओं का परस्पर बन्ध होता है और इसमें सहकारीकारण कालद्रव्य है । कहा भी है
"खंधा खलु काल करणा वु ।"
पुद्गल परमाणुओं का परस्पर बंध हो जाने पर द्वयणक प्रादि स्कन्धरूप समानजाति - द्रव्य-पर्याय उत्पन्न हो जाती है जो विभावर्याय है ।
परमाण में नरम, कठोर, हलका, भारी स्पर्श नहीं है, किन्तु बंध होकर स्थूल स्कन्ध बन जाने पर उनमें नरम-कठोर तथा हलका- भारी स्पर्श उत्पन्न हो जाते हैं इसीप्रकार पुद्गलपरमाणु में जल धारण करने की शक्ति या कर्णइन्द्रिय का विषय होने की शक्ति नहीं है, किन्तु पुद्गल परमाण ुओं का बन्ध होकर घटरूप परिणमन होने पर जल धारण करने की नवीन पर्यायशक्ति उत्पन्न हो जाती है तथा भाषावर्गणास्कन्धरूप परिणमन होने पर कर्ण - इन्द्रिय का विषय होने को नवीन पर्यायशक्ति उत्पन्न हो जाती है । घटपर्याय का व्यय हो जाने पर जल धारण करने की पर्यायशक्ति नष्ट हो जाती है । भाषावगंणारूप स्कन्ध का विघटन हो जाने पर करणं इन्द्रिय के विषय होने की शक्ति का भी प्रभाव हो जाता है। इसप्रकार पर्यायशक्ति उत्पन्न होती रहती है, और विनष्ट होती रहती है । परमाणुओं का परस्पर बंध हो जाने पर पुद्गलपरमाणु रूप शुद्धपर्याय का अभाव होकर ( व्यय होकर ) स्कन्धरूप अशुद्धपर्याय उत्पन्न हो जाती है। और विभावरूप परिणमन होने लगता है । विभावरूप परिणमन को वैभाविकशक्ति भी कह दिया तो कोई विशेष आपत्ति नहीं है, किन्तु अशुद्धद्रव्य की पर्यायशक्ति है द्रव्यशक्ति नहीं है । अशुद्धपर्याय का व्यय होने पर और अशुद्धपर्याय का उत्पाद होने पर इस पर्यायशक्ति का भी प्रभाव हो जाता है। किसी भी आर्ष ग्रन्थ में वभाविक - द्रव्यशक्ति का उल्लेख नहीं है फिर उसको कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? पर्यायशक्ति के लिये प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० २०० देखना चाहिये ।
- जै. ग. 25-6-70/ VII / का. ना. कोठारी
पुद्गलों (परमाणु) के बन्ध का नियम एवं मतभिन्न
शंका- परमाण के बन्ध के विषय में तत्त्वार्थ सूत्रकार से धवल का मत भिन्न है या तस्वार्थसूत्र के टीकाकारों से धवल का मत भिन्न है ? सर्वार्थसिद्धि में सम्पादक पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्त शास्त्री ने पृ० २३० पर बताया है कि "तत्त्वार्थ सूत्र [ ५।३३ - ३७ ] एवं प्रवचनसार गाथा १६६ की टीकाद्वय ] का मत एक है, परन्तु षट्खंडागम [ धवल पु० १४ पृ० ३३ गाथा ३६ ] में कही गई बन्ध-व्यवस्था इससे कुछ भिन्न है ।" इस पर विशेष स्पष्टीकरण देने की कृपा करें ।
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समाधान- - 'तत्त्वार्थ सूत्र' में परमाण ुओं के बन्ध होने में दो सूत्र [ निषेधात्मक ] हैं । जघन्य गुण ( प्रविभाग प्रतिच्छेद ) वाले परमाणुओं का बन्ध नहीं होता। दूसरे, जिन सदृशपरमाणओं के गुणसमान हों उनका परस्पर बन्ध नहीं होता । सदश परमाण नों में यदि दो गुण अधिक हों तो बन्ध हो सकता है। रूक्ष व रूक्ष परस्पर सदृश हैं । स्निग्ध व स्निग्ध परस्पर सदृश हैं, किन्तु रूक्ष व स्निग्ध परस्पर सदृश नहीं हैं, किन्तु विदेश हैं ।
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