Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १०३१
सिद्ध भगवान के प्रायुकर्म का क्षय हो जाने से प्रायुकर्म का उदय नहीं पाया जाता है । प्रतिबन्धक के अभाव के कारण सिद्धों की ऊष्वंगमनशक्ति असीम हो जाती है अतः यह कहना कि सिद्धों में लोकाकाश में ही जाने की शक्ति है, उचित नहीं है किन्तु श्रार्ष ग्रन्थ विरुद्ध है ।
गमन में सहकारी कारण धर्मद्रव्य है । इसीलिये जिनेन्द्र भगवान ने धर्मद्रव्य का लक्षण गतिहेतुस्व कहा है ।
गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी ।
तोयं जह मच्छाणं अच्छंतामेव सो रोई ॥१७॥ ( वृ.द्र. सं. )
गमन करते हुए जीव और पुद्गलों को धर्मद्रव्य गमन करने में उसीप्रकार सहकारी कारण होता है जिस प्रकार जल मछलियों के गमन में सहकारी कारण है, किन्तु ये जबरदस्ती गमन नहीं कराते ।
आचार्य महराज ने मछलियों का दृष्टांत देकर यह बतलाया है कि शक्ति होते हुए भी जिस प्रकार मछलियाँ जल की सहायता के बिना गमन नहीं कर सकती हैं उसीप्रकार शक्ति होते हुए भी जीव धर्मद्रव्य की सहायता बिना गमन नहीं कर सकता। तालाब प्रादि में जहाँ तक जल होता है वहाँ तक ही मछलियाँ गमन कर सकती हैं । वर्षाकाल में जब तालाब आदि में जल की वृद्धि हो जाती है तो मछलियां पूर्व की अपेक्षा अधिक दूर तक गमन कर सकती हैं। ग्रीष्मऋतु में जब जल सूखकर बहुत कम रह जाता है तो मछलियों का गमन भी उतने ही अल्पक्षेत्र में होता है। इससे स्पष्ट है कि शक्ति होते हुए भी मछलियाँ वहाँ तक ही गमन कर सकती हैं जहाँ तक जल होता है, जल से बाहर गमन नहीं कर सकती हैं । इसीप्रकार असीम शक्ति होते हुए भी सिद्ध भगवान वहाँ तक गमन कर सकते हैं, धर्मद्रव्य के अभाव में उससे आगे गमन नहीं कर सकते हैं । धर्मद्रव्य लोक के अंत तक है, अतः सिद्धभगवान का गमन भी लोक के अन्त तक ही होता है। उससे अागे धर्मद्रव्य का अभाव है, अतः सिद्ध भगवान का उससे आगे गमन नहीं हो सकता है । कहा भी है
जीवाणं पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थो ।
धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छति ॥ १८४ ॥ ( नियमसार )
टीका - अतोऽमीषां त्रिलोक शिखरादुपरि गतिक्रिया नास्ति परतो गतिहेतोर्धम्र्मास्तिकायाभावात् । यया जलाभावे मत्स्यानां गतिक्रिया नास्ति । अतएव यावद्धर्मास्तिकायस्तिष्ठति तत्क्षेत्रपर्यन्तं स्वभावविभावगति क्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां गतिरिति ।
जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक जीवों का गमन होता है। धर्मास्तिकाय के प्रभाव में उससे प्रागे गमन नहीं होता है । लोक शिखर तक ही धर्मास्तिकाय है उससे आगे धर्मास्तिकाय का अभाव है । अतः सिद्ध भगवान की गति लोकशिखर तक ही होती है तथा धर्मास्तिकाय के प्रभाव में उससे आगे नहीं होती है । जैसे जल के प्रभाव में मछलियों का गमन नहीं होता है ।
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इस गाथा द्वारा कुन्दकुन्दाचार्य ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सिद्धों का लोकाकाश से आगे गमन के प्रभाव में शक्ति का अभाव कारण नहीं है, किन्तु गतिहेतुत्व लक्षणवाले धर्मास्तिकाय का प्रभाव कारण है ।
इसी बात को श्री अमृतचन्द्राचार्य ने निम्न श्लोक में कहा है
ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मान्नास्ति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावत्स हि हेतुगंतेः परः ॥४४॥
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