Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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१०२८ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
तिपूर्वक स्थिति के बहिरंगकारण धर्म-अधर्म को अंगीकार करने पर ही लोक प्रलोक का विभाग होता है । - श्री १०८ आचार्य अमृतचन्द्रसूरि की टीका
श्रीमद् जयसेनजी ने भी अपनी टीका में इस प्रकार कहा है- धर्माधर्मो विद्यते लोकालोक सद्भावात् षड्द्रव्यसमूहात्मको लोकः तस्माद्बहिर्भूतं शुद्धमाकाशमलोकः तत्र लोके गतितत्पूर्वक स्थितिमास्कन्दतोः स्वीकुर्वतोर्जीवपुद्गलयोर्यदि बहिरङ्गहेतुभूतधर्माधर्मो न स्वतां तदा लोकाद्बहिभुं तबाह्यभागेऽपि गतिः केन नाम निषिध्यते न केनापि ततो लोकालोक विभागादेव ज्ञायते धर्माधर्मो विद्य 1
अर्थ — लोक और अलोक की सत्ता है, इससे धर्म और अधर्म की सत्ता सिद्ध है । जो छह द्रव्यों का समूह है। उसे लोक कहते हैं, उससे बाहर जो शुद्ध आकाशमात्र है उसको अलोक कहते हैं । यदि इस लोक में जीव और पुद्गलों के चलने में और चलते-चलते ठहर जाने में बाहरी निमित्त कारण धर्म और अधर्मं द्रव्य न होवें तो लोक के बाहरी भाग में गमन को कौन निषेध कर सकता है ? यदि कोई भी रोकनेवाला न हो तब लोक और अलोक का विभाग ही न रहे, परन्तु जब लोक और अलोक है तब यह जाना जाता है कि अवश्य धर्म और अधर्मद्रव्य हैं ।
इस गाथा व टीका से सिद्ध है कि जीव और पुद्गल में तो लोकाकाश से बाहर जाने की भी शक्ति है, किन्तु धर्मद्रव्य के अभाव के कारण उन दोनों द्रव्यों की गति लोक के अन्त में रुक गई अर्थात् धर्मास्तिकाय के प्रभाव के कारण ही जीव और पुद्गल की गति अलोक में नहीं हो सकी । लोक और अलोक का विभाग भी धर्मद्रव्य के कारण । इस विषय में श्री १०८ आचार्य कुन्दकुन्द का अन्य प्रमाण इस प्रकार है
जीवाणं पुग्गलाणं गमणं जाणेहि जाव धम्मत्थं ।
धम्मस्थिकायाभावे, त्तत्तो परदो ण गच्छति ॥ १८४ ॥ नि० सा०
अर्थ - जहाँ तक धर्मास्तिकाय द्रव्य है वहाँ तक जीव और पुद्गलों का गमन होता है ऐसा मैं ( श्री कुन्दकुन्दाचार्य ) जानता हूँ । धर्मास्तिकाय के अभाव से उसके ऊपर कोई नहीं जा सकता है ।
नोट - इस गाथा में यह नहीं कहा है कि आगे अलोकाकाश में जीव को जाने की शक्ति स्वभाव से ही नहीं है, किंतु धर्मास्तिकाय का अभाव है इसलिये आगे नहीं जाता ।
टीका- यथा जलाभावे मत्स्यानां गतिक्रिया नास्ति अतएव यावद्धर्मास्तिकायस्तिष्ठति तत्क्षेत्रपर्यन्तं स्वभाव विभाव गतिक्रिया परिणतानां जीवपुद्गलानां गतिरिति ।
अर्थ - जैसे जल के अभाव में मछली की चलन रूप क्रिया नहीं हो सकती इसलिये जहाँ तक धर्मास्तिकाय है उस क्षेत्र तक ही चेतन व अचेतन जड़ पुद्गल गमन करेंगे, इसके आगे नहीं ।
इसप्रकार सोनगढ़ की मान्यता श्री कुन्दकुन्दाचार्य के सिद्धान्त के विरुद्ध है । अब श्री मोक्षशास्त्र के टीकाकारों का प्रमाण इस प्रकार है
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मोक्षशास्त्र अध्याय १०, सूत्र ८ की सर्वार्थसिद्धि टीका में श्री पूज्यपादाचार्य लिखते हैं-गत्युपग्रह कारणभूतो धर्मास्तिकाय नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभावः । तदभावे च लोकालोकविभागाभावः प्रसज्यते । अर्थ- गतिरूप उपकार का कारणभूत धर्मास्तिकाय लोकान्त के ऊपर नहीं है इसलिये अलोक में गमन नहीं होता । धर्मास्तिकाय के अभाव में भी गमन माना जावे तो लोकालोक के विभाग का अभाव प्राप्त होता है ।
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