Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
१०२६ ]
[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
गुणगुण्यादिसंज्ञादिभेवाद भेदस्वभावः ॥११२॥ पालापपद्धति द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों पृथक्-पृथक् संज्ञाएँ हैं । गुण अनेक हैं, पर्यायें अनेक हैं और द्रव्य एक है । द्रव्य का लक्षण सत् है, गुण का लक्षण-'द्रव्याश्रया निगुणा गुणा: है अर्थात जो द्रव्य के प्राश्रय हो और स्वयं निर्गुण हो वह गुण है। पर्याय का लक्षण-'दव्वविकारो हि पज्जवो भणियो'। अर्थात द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं।
इसप्रकार संज्ञा, संख्या, लक्षण की अपेक्षा जो द्रव्य है वह गुण या पर्याय नहीं है।
-जें. ग. 30-3-72/VII/ देहरा ति बारा से प्राप्त शंका
चार द्रव्यों को निष्क्रियता शंका-जीव और प्रगल के अतिरिक्त क्या शेष चारद्रव्य भी अपनी शुद्धअवस्था में स्वतः क्रियाशील ( active ) हैं ? यदि नहीं तो प्रत्येक द्रव्य परिवर्तनशील कैसे है, क्योंकि जो स्वयं निष्क्रिय है उसमें अपनी पर्यायों का सदैव परिवर्तन होते रहना कैसे सम्भव है ? यदि द्रव्य में उसकी पर्यायें प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती हैं तो यह अवश्य उस द्रव्य में एक क्रिया का होना कहा जाएगा और ऐसी दशा में धर्मादि को निष्क्रिय तथा निराकार संज्ञाएँ कैसे की जा सकती हैं। क्योंकि द्रव्यों को पर्याय द्रव्य से भिन्न नहीं हो सकती हैं ?
समाधान-धर्मादि चार द्रव्यों को मोक्षशास्त्र अध्याय ५ सूत्र ७ में 'निष्क्रिय' कहा है सो वहाँ पर परिस्पन्द वचलनरूप क्रिया के अभाव की अपेक्षा से 'निष्क्रिय' कहा है। निष्क्रिय होते हए भी धर्मादि द्रव्यों में स्वनिमित्तक उत्पाद-व्यय होते रहते हैं अतः पर्याय होती रहती हैं जैसा श्री राजवातिक पंचम अध्याय सूत्र ७ वार्तिक ३ की टीका में कहा है-अनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमानानां षट्स्थान प्रतितया वृद्धघा हान्या च वर्तमानानां स्वभावादेषामुत्पादो व्ययश्च । प्रागम प्रमाण से जानने योग्य और जो षटस्थान वृद्धि-हानिरूप वर्तन कर रहे हैं ऐसे अनन्तानन्त अगुरुलघु गुरगों के स्वभाव से इन (धर्मादि द्रव्यों ) का उत्पाद व ध्यय होता है अतः धर्मादि शुद्ध द्रव्यों में स्वनिमित्तक उत्पाद व्ययरूप क्रिया मानने में कोई विरोध नहीं पाता, किन्तु प्रदेश परिस्पन्द व चलनरूप क्रिया धर्मादि शुद्धद्रव्यों में नहीं है।
-जं. सं. 6-9-56/VI/ बी. एल. पदम, शुजालपुर जीव पुद्गल की शक्ति तो लोकाकाश से बाहर जाने की है शंका-धर्मास्तिकाय के अभाव से जीव लोक के बाहर नहीं गया, यह व्यवहारनय का कथन है। निश्चयनय कहता है कि जीव लोकाकाश का द्रव्य है, उसमें लोक के बाहर जाने की उपादानशक्ति ही नहीं है। विशेष कथन सोनगढ के मोक्षशास्त्र अध्याय १०, सूत्र ८ की टीका में है। फिर आप श्री कानजीस्वामी के निश्चयनय के कथन का क्यों विरोध करते हो?
समाधान-सोनगढ़ से प्रकाशित मोक्षशास्त्र पत्र ७९१ पर लिखा है "जीव और पुद्गल की गति स्वभाव से इतनी है कि वह लोक के अन्त तक ही गमन करता है। यदि ऐसा न हो तो अकेले प्राकाश में लोकाकाश और पालीकाकाश ऐसे दो भेद ही न रहें। गमन करनेवाले द्रव्य की उपादानशक्ति ही लोक के अग्रभाग तक गमन करने की अर्थात वास्तव में जीव की अपनी योग्यता ही अलोक में जाने की नहीं है अतएव वह अलोक में नहीं जाता. धर्मास्तिकाय का अभाव तो इसमें निमित्तमात्र है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org