Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व धोर कृतित्व ]
[ १०१५
परन्तु धो पूज्यपाद आचार्य और इनके पश्चात् होने वाले अकलंकदेव आदि ने भी "सदृश" को गोण करके " सक्ष तथा विश दोनों में गुणों की समानता होने पर बन्ध नहीं होता" ऐसा अर्थ कर दिया है। परन्तु मूल सूत्रकार के सूत्र से यह अर्थ नहीं निकलता । अपने अभिप्राय को प्रकट करने के लिए शब्द ही माध्यम है । शब्दों का जो अर्थ होता है वही ग्रन्थकार का अभिप्राय है ।
'धवल' से तस्वायंसूत्रकार का मत भिन्न नहीं है, किन्तु टीकाकारों का मत भिन्न है; ऐसा पं० फूलचन्द्र जी सा० को लिखना चाहिए था। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'तत्त्वार्थसार' लिखा है। उन्होंने भी श्री पूज्यपादाचार्य को Follow किया है। श्री वीरसेनाचार्य ने श्री पूज्यपाद को Follow नहीं किया, किन्तु मूल ग्रन्थकर्त्ता ( उमास्वामी ) के शब्दों का धर्य किया है।
अथवा इस सम्बन्ध में आचार्यों के दो भिन्न मत हैं । " जघन्यगुण और दो गुरण अधिक" समझने के लिए धवल पु० १४ पृ० ४५० व ४५१ देखने चाहिए ।
- पक्ष 15-4-79/ न. ला. जैन, भीण्डर
शंका- 'तस्वार्थसूत्र' का 'धवला' से बन्धनियमविषयक मतभेद हो, ऐसा नजर नहीं आता। " सदृशानां" शब्द भी अवलोकनीय है। इस विषय में कृपया आप स्पष्टीकरण देवें। साथ ही धवलाकार के मतानुसार विशों में अब समगुणबन्ध एवं अद्वयधिक बन्ध स्वीकृत है तो "बन्येऽधिको पारिणमिको च [ ५३७ त० सू० ]" यह सूत्र वहाँ क्या काम करेगा ? समझाने की कृपा करें ।
समाधान — परमाण ुओं के परस्पर बन्ध के विषय में जो धवलाकार का [ ६० पु० १४ में वर्मणा खण्ड में] मत है वही मत तस्वार्थसूत्रकार का है । किन्तु श्रीमत्पूज्यपाद आदि आचार्यों का भिन्न मत है । 'तत्त्वार्थ सूत्र', अध्याय ५ में सूत्र ३३ से ३७ तक परमाणुओं के परस्पर बन्ध का नियम बताया गया है। सूत्र ३३ में कहा गया है कि स्निग्ध व रूक्षगुण के कारण परमाणुओं का परस्पर बम्ध होता है। ३४ वें एवं ३५ वें सूत्र में यह बताया गया है कि किन-किन अवस्थाओं में परमाणुओं का परस्पर बन्ध सम्भव नहीं है। चौंतीसवें सूत्र में बताया गया है कि जब स्निग्ध या रूक्षगुण के अविभागप्रतिच्छेद घटकर इतने कम हो जाते हैं कि उनमें बन्धशक्ति का प्रभाव हो जाता है तो उन परमाणु प्रों का बन्ध नहीं होता। जब स्निग्ध या रूक्षगुण के अविभागप्रतिच्छेद बढ़कर जघन्येतर हो जाते हैं तो उनमें बन्ध शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है और उनका बन्ध सम्भव हो जाता है । पैंतीसवें सूत्र में बताया है। कि यदि वे परमाण सर हैं— अर्थात् एक परमाणु स्निग्ध है और दूसरा परमाण भी स्निग्ध है [ अथवा एक परमाणु, रूक्ष है और दूसरा परमाणु भी रूक्ष है ] तथा उन दोनों परमाणओं के अविभागप्रतिच्छेद भी समान हों तो उनका परस्पर बन्ध नहीं होता । गुणों ( अविभागप्रतिच्छेदों ) की समानता का नियम विदेश ( स्निग्ध का रूक्ष या रूक्ष का स्निग्ध के साथ ) बन्ध में बाधक नहीं है। यदि गुण-समानश्व का नियम विशों में भी वन्य का बाधक हो जावे तो सूत्र ३५ में प्रयुक्त 'सहशानाम्' शब्द निरर्थक हो जायगा। छत्तीसवें सूत्र में बताया गया है कि सरों [ स्निग्ध का स्निग्ध के साथ अथवा रूक्ष का रूक्ष के साथ ] का बन्ध दो गुण अधिक होने पर ही सम्भव है ।
9
।
तीसवें सूत्र में यह बताया गया है कि बन्ध होने पर अधिक गुणवाले रूप परिणमन हो जायगा। स्निग्ध का स्निग्ध के साथ या रूक्ष का रूक्ष के साथ होने पर हीनगुण ( अविभाग प्रतिच्छेद ) वाला परमाण भी अधिक स्निग्ध या अधिक रूक्ष हो जावेगा। इसीप्रकार स्निग्ध व रूक्ष परमाणुओं का परस्पर बन्ध होने से यदि दोनों के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org