Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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स्वसमय-परसमय शंका-स्वसमय और परसमय कौन-कौन जीव हैं ? समाधान-श्री कुदकुवाचार्य ने स्वसमय और परसमय जीवों की व्याख्या निम्नप्रकार की है
बहिरंतरप्पभेयं परसमयं भण्णय जिणिदेहि । परमप्पा सगसमयं तन्भेयं जाण गुणट्ठाणे ॥१४८॥ मिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तरिय अतरप्पजहण्णा।
संत्तोत्ति मज्झिमंतर खोणुत्तम परम-जिणसिद्धा ।।१४९॥' रयणसार अर्थ-बहिरात्मा और अन्तरात्मा भेदरूप परसमय, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। परमात्मा स्वसमय है । गुणस्थानों की अपेक्षा उनके भेद जानने चाहिये ॥ १४८ ।। तरतमता लिये हुए मिश्र-तीसरे गुणस्थानतक बहिरात्मा है। चतुर्थगुणस्थान में जघन्यअन्तरात्मा है । उपशान्त मोह-ग्यारहवें गुणस्थान तक मध्यमअन्तरात्मा है। क्षीणमोह-बारहवें गुणस्थान में उत्कृष्टअन्तरात्मा है । जिन और सिद्ध परमात्मा है । अर्थात् बारहवेंगुणस्थान तक अन्तरात्मा होने के कारण परसमय है । तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती जिन तथा गुणस्थानातीत सिद्धभगवान स्वसमय हैं। मिथ्याइष्टि अथवा सम्यग्दृष्टि जो घातिया कर्मोदय में स्थित हैं, वे परसमय हैं और जो क्षायिकसम्यगदर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित हैं वे स्वसमय हैं। ___ इसी बात को उन्हीं कुन्दकुन्द भगवान ने समयसार ग्रंथ में कहा है।
जीवो चरित्तवंसणणाणदिउ तं हि ससमयं जाण ।
पुग्गल कम्मपदेसट्टियं च तं जाण परसमयं ॥ २॥ अर्थ-जो जीव ( क्षायिक ) चारित्र, ज्ञान, दर्शन में स्थित हैं, उनको स्वसमय जानना चाहिये और जो घातियाकर्मोदयरूप पुद्गल प्रदेशों में स्थित हैं। उनको परसमय जानना चाहिये । नोट-यह प्रथं रयणसार गाथा १४८ व १४९ की दृष्टि से किया गया है।
-जं. ग. 7-10-65/IX/ प्रेमचन्द स्वसमय तथा परसमय का स्वरूप शंका-कौन जीव स्व-समय है और कौन जीव पर-समय है ? स्व-समय और पर-समय किसको कहते हैं ? केवली भगवान के योग तथा कर्मास्रव हैं क्या वे भी पर-समय हैं ? समाधान-श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने स्व-समय और पर-समय का स्वरूप निम्नप्रकार कहा है
जे पज्जयेसु गिरदा जीवा परसमयिग त्ति णिविट्ठा ।
आवसहावम्मि ठिवा ते सग समया मुरणेदव्वा ॥ ९४ ॥प्र. सा. अर्थ-जो पर्याय में निरत हैं वे पर-समय हैं ऐसा कहा गया है। जो प्रात्म-स्वभाव में स्थित हैं उनको स्व-समय जानना चाहिये।
१. डा0 देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा अनूदित 'रयणसार' में इन गाथाओं की गाथा संख्या ११८.१२ है।
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