Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६६३
शंका-पुदगल क्रियाशील है अथवा नहीं ? कृपया निश्चयनय से बतलाइये। यदि क्रियाशील है तो समाधान कीजिए कि पुदगल परमाणु जो एक जड़ पदार्थ है-स्वतः ( बिना जीव के संयोग के) क्रिया कैसे कर सकता है ?
समाधान-निश्चयनय दो प्रकार हैं-शुद्धनिश्चयनय और अशुद्धनिश्चयनय । यहाँ दोनों नयों की अपेक्षा समाधान कर रहे हैं। सर्वप्रथम क्रिया का लक्षण क्या है ? इसका विचार करना है-क्रिया- क्षेत्रात्क्षेत्रान्तरगमनरूपा परिस्पन्दवती चलनवती क्रिया सा विद्यते ययोस्तो क्रियावन्तो जीवपुद्गलौ । अर्थ : जिनके क्षेत्र से क्षेत्रान्तर परिस्पन्दनवाली व चलनवाली गमनरूप क्रिया विद्यमान है वे जीव-पुदगल दोनों क्रियावाले हैं। परिस्पन्दन
पण क्रिया. क्रिया का लक्षण परिस्पन्द (कम्पन ) है। (प्र. सा. गाथा १२९ को टीका) प्रदेशान्तरप्राप्ति हेत: परिस्पन्दनरूपपर्यायः क्रिया। अर्थ-एक प्रदेश से प्रदेशान्तर में गमन करना उसका नाम क्रिया है। (पं० का० गाथा ९८ की टीका)। उभयनिमित्तापेक्षः वशादुत्पद्यमानः पर्यायो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रिया । ( स० सि. अ०५ स०७) उभयनिमित्तापेक्षः पर्यायविशेषो द्रव्यस्य देशान्तर प्राप्तिहेतुः क्रिया। (त० रा. वा० अ० ५ सू ७ वा०१) अर्थ : उभयनिमित्त के ( अभ्यन्तर और बाह्य कारण ) द्वारा जिसकी उत्पत्ति है और जो द्रव्य को एक देश से दूसरे देश में लेजाने में कारण है, ऐसी पर्याय का नाम किया है। अभ्यन्तरं क्रियापरिणामशक्तियुक्त द्रव्यं बाह्य च प्रेरणाभिघातादिकं निमित्तमपेक्ष्योत्पद्यमानः पर्यायविशेषो द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः क्रियेति व्यपदिश्यते । अर्थ : क्रियारूप परिणमनशक्ति का धारक द्रव्य अभ्यन्तर विकारण, प्रेरणा का होना एवं अभिधात (धक्का प्रादि ) बाह्यकारण है इन दोनों कारणों के द्वारा जिसकी उत्पत्ति है और जो द्रव्य को एकदेश से दूसरे देश लेजाने में कारण है ऐसी विशेषपर्याय का नाम क्रिया है। ( सुखबोध तत्त्वार्यवृत्ति अ० ५ सूत्र ७) इसप्रकार क्रिया का लक्षरण कहा गया।
जीव क्रियाशील है और नहीं भी जीवा .......... सहसक्किरिया हवंति ....."पुग्गलकरण जोवा ........| पं० का० गा० ९८ इस पर टीका इस प्रकार है-जीवानां सक्रियत्वस्य बहिरंग साधनं कर्मनोकर्मोपचय रूपाः। ते पुद्गलकरणाः तत्भावानिः क्रियत्वं सिद्धानां । अर्थ : जीव बाह्य पुद्गल कारणों के साथ सक्रिय होते हैं। जीवों के क्रियापने में बाह्यसाधन कर्म और नोकर्मरूप पुद्गल हैं। वे जीव-पुद्गल का निमित्त पाकर क्रियावन्त होते हैं। कर्म-नोकर्मरूप पुदगलनिमित्त के अभाव में सिद्ध निष्क्रिय हैं। यहाँ पर जीव की विभावरूप क्रिया का बाह्य कारण की मुख्यता से कथन है और विभाव के प्रभाव में सिद्धों को निष्क्रिय कहा है। प्र० सा० गाथा १२९ की टीका में इसप्रकार कहा है-जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वातू परिस्पन्देन नृतनकमनोकर्मपुदगलेभ्यो भिन्नास्तैः सह संघातेन संहताः पुनर्भेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमान भज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति ।
अर्थ-जीव भी क्रियावाले होते हैं, क्योंकि परिस्पन्द स्वभाववाले होने से परिस्पन्द के द्वारा नवीन कर्मनोकर्मरूप पुद्गलों से भिन्न जीव उनके साथ एकत्र होने से और कर्म नोकर्मरूप पुद्गलों के साथ एकत्र हए जीव बादमें पृथक होने से ( इस अपेक्षा से ) वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। यहां पर क्रिया की अपेक्षा में अशुभ जीव में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य बताया है। अतः क्रिया जीव का स्वभाव कहा है। यह अशुद्ध क्रिया का अन्तरंग कारण की मुख्यता से कथन है । त. रा. वा. अ. ५ सूत्र ७ को प्रथम वातिक को टीका में श्रीमद भट्टाकलंकदेव ने इस प्रकार कहा है-उभयनिमित्त इति विशेषणं द्रव्यस्वभावनिवृत्त्यर्थ । यदि हि द्रव्यस्वभावः स्यात क्रिया परिणामिनोद्रव्यस्थानुपरत क्रियत्वप्रसंगः। द्रव्यस्य पर्याय विशेष इति विशेषणं अर्थान्तर भावनिवृत्त्यर्थ । यदि हि क्रिया द्रव्यावर्थान्तर भूता स्यातू व्यनिश्चलत्व प्रसंगः । अर्थ-उभय निमित्तापेक्ष यह विशेषण दिया गया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org