Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
ऊर्ध्वगमन श्रात्मद्रव्य की शुद्ध पर्याय है, यह श्रात्मा का स्वभाव है, गुरण नहीं
शंका - ऊर्ध्वगमन यदि आत्मा का स्वभाव है तो ऊध्वंगमन गुण है या पर्याय ? यदि गुण है तो उस गुण की शुद्ध तथा अशुद्ध कौनसी पर्याय है ? यदि ऊर्ध्वगमन पर्याय है तो वह किस गुण की है और वह ऊर्ध्वगमन पर्याय शुद्ध या अशुद्ध है ?
[ १००१
समाधान- ऊर्ध्वगमन ग्रात्मा का स्वभाव है, किन्तु यह गुण नहीं है, पर्याय है और वह जीवद्रव्य की शुद्ध पर्याय है । इस विषय में प्रागम इस प्रकार है "तथागतिपरिणामाच्चाग्निशिखावत् ॥ ६॥ ( टीका ) यथा तिर्यक्प्लवनस्वभाव समीरण संबंधनिरुत्सुका प्रदीपशिखा स्वभावादुत्पतति तथा मुक्तात्मापि नाना गतिविकारण कर्म निवारणं सति ऊर्ध्वगतिस्वभावत्वादृध्वंमेवारोहति । ( वार्तिक ) ऊर्ध्वगत्यभावे तमाव प्रसंगोऽग्नेरोष्याभावेऽभाववदिति चेन गत्यंतर निवृत्यर्थत्वात् ॥९॥ ( टीका ) स्थान्मतं यथोष्णस्वभावस्याग्ने रौष्णयाभावेऽमावस्तथा मुक्तस्योर्ध्वगमनं स्वभावस्तदभावेऽभावः प्राप्नोतीति चेन्न । किं कारणं ? गत्यंतर निवृत्यर्थत्वात् । तथा च मुक्तस्योर्ध्वमेवगमनं न दिगंतरगमनमित्ययं स्वभावो नोर्ध्वं गमनमेवेति । ( वार्तिक ) ऊर्ध्वज्वलनवद्वा ॥१०॥ ( टीका ) ययोर्वज्वलनस्व भावत्वेऽप्यग्ने बॅगवड् द्रव्याभिघातात्तिर्यग्ज्वलनेऽपि नाग्नेविनाशो दृष्टस्तथा मुक्तस्योध्वंगति-स्वभावत्वेपि तदभावे भाव इति । अत्राह - ऊडवंज्वलन स्वभावस्याग्नेर्वेगवदभि घातात्तिर्यग्ज्वलने सति विरोधादूध्वं ज्वलनाभावो युक्तः । मुक्तस्य तु पुनः स्वभावगतिलो पहेत्वभावादूर्ध्वगत्युप र मोनुपपन्न इत्युच्यते लोकांतान्नोऽगतिर्मुक्तस्य कुत: ? ( सूत्र ) धर्मास्तिकायाभावात् ॥९॥ ( टीका ) गत्युपग्रहकारणभूतोधर्मास्तिकायो नोपर्यस्तीत्यलोके गमनाभावः । तदभावे च लोकालोक विभागाभावः प्रसज्यते ।"
अर्थ - अग्निशिखा के समान जीव का गति स्वभाव है ||६|| जिस प्रकार तिरछा बहने का स्वभाव रखनेवाली वायु दीपक की शिखा को भी तिरछी कर देती है, परन्तु जब इस वायु का संबंध नहीं रहता है तब दीपक की शिखा अपने स्वभाव से ऊपर को ही जाती रहती है, क्योंकि, ऊपर को जाना ही दीपशिखा का स्वभाव है । उसी प्रकार नाना गतियों में ले जाने में कारणभूत कर्म का सर्वथा निवारण हो जाने पर वह अपने ऊर्ध्वगति स्वभाव के कारण नियम से ऊपर को ही सीधा गमन करता है । संसार में कर्मों की परतंत्रतावश वह ऊर्ध्वगमन नहीं कर पाता था, परन्तु उस परतंत्रता के दूर हो जाने पर वह अपने स्वभावानुसार वायुवेग से रहित दीपकशिखा के समान नियम से ऊर्ध्वगमन करता है । ऊर्ध्वगति के अभाव में जीव के अभाव का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि, उष्णता के अभाव में अग्नि का अभाव हो जाता है । यह ठीक नहीं है, क्योंकि जीव का ऊर्ध्वगमन स्वभाव दूसरी गति के निषेध के लिये है || || जिसप्रकार अग्नि का उष्ण स्वभाव है । यदि वह उष्णस्वभाव नहीं रहे तो अग्नि का भी अभाव हो जाय उसी प्रकार मुक्तजीव का यदि ऊर्ध्वगमनस्वभाव माना जाता तो उसका जब ऊर्ध्वगमन होता रुक जाता है तब उस ऊर्ध्वगमनरूप स्वभाव का अभाव हो जाने से जीव का भी अभाव सिद्ध होता है ? यह कहना ठीक नहीं है कारण कि दूसरी गति के निषेध के लिये मुक्त जीव का ऊर्ध्वगमनस्वभाव कहने का प्रयोजन यह है कि मुक्तजीव का ऊपर ही नियम से गमन होता है और किसी भी दिशा में उसका गमन नहीं हो सकता है । यही मुक्त जीव का स्वभाव है, परन्तु ऊपर उसका सदैव गमन ही होता रहे यह स्वभाव नहीं माना गया है। इस विषय में दृष्टान्त देते हैं- जिस प्रकार अग्नि का स्वभाव नियम से ऊपर जाना है, परन्तु वेगवान द्रव्य के अभिघात से अ का तिरछा गमन होने पर भी उसका नाश नहीं हो जाना है उसीप्रकार मुक्त जीव का ऊध्वंगमन स्वभाव होने पर भी अन्यत्र उस ऊर्ध्वगमन का अभाव होने पर भी जीव का अभाव नहीं हो सकता है। प्रश्न - यद्यपि अग्नि का ऊर्ध्वगमन करना स्वभाव है तो भी वेगवान् द्रव्य ( वायु ) की प्रेरणा से उसकी तिरछी ज्वाला के जलने पर ऊर्ध्वगमन का विरोध हो जाता है । इसलिये ऊर्ध्वगमन अग्नि का नहीं हो पाता है, परन्तु मुक्तजीव के तो ऊधर्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org