Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
जीवो चरित्तदसणणाणदिउ तं हि ससमयं जाण ।
पुग्गलकम्मपदेसट्ठियं च तं जाण परसमयं ॥२॥ समयसार अर्थ-जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित है उसको स्व-समय जानो और जो पुद्गलकमंप्रदेश में स्थित है उसको पर-समय जानो।
इन दोनों गाथाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो प्रात्मस्वभाव अर्थात दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित है वह स्वसमय है। ऐसा जीव परमात्मा हो सकता है। और इससे भिन्न अर्थात् जो आत्मस्वभाव या दर्शन-ज्ञानचारित्र में स्थित नहीं है अर्थात् जो परमात्मा नहीं है वह परसमय है। इसप्रकार अन्तरात्मा सम्यग्दृष्टि भी परसमय कहा गया है। इसी बात को श्री कुन्दकुन्द भगवान रयणसार ग्रंथ में इस प्रकार कहते हैं
बहिरंतरप्पमेयं परसमयं भण्णए जिणिदेहि ।
परमप्पो सगसमयं तन्भेयं जाण गुणठाणे ॥१४॥' अर्थ-भगवान जिनेन्द्रदेव ने बहिरात्मा और अन्तरात्मा को परसमय कहा है और परमात्मा को स्वसमय कहा है। इनके विशेष भेद गुणस्थान की अपेक्षा समझ लेना चाहिये ।
मिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिया अंतरप्पजहण्णा ।
संतोत्ति मज्झिमंतर खोणुत्तमपरमजिणसिद्धा॥ १४९ ॥२ अर्थ-मिथ्यात्व नामक पहिले गुणस्थान से सम्यग्मिथ्यात्व नामक तीसरे मिश्रगुणस्थानतक तरतमता से बहिरात्मा है। अविरत सम्यग्दृष्टि चौथेगुणस्थानवाला जघन्य अन्तरात्मा है, उपशान्त मोह [ग्यारहवें गुणस्थान] तक मध्यममन्तरात्मा है और क्षीण मोह [ बारहवें गुणस्थान ] वाला उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। जिन और सिद्ध परमात्मा हैं।
इन पार्षवाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्षीणमोह [ बारहवें गुणस्थान ] तक घातियाकर्मों का उदय रहता है अर्थात पुद्गलकमंप्रदेश में स्थित रहते हैं, क्योंकि केवलज्ञान प्रादि स्वभाव व्यक्त नहीं हुआ है, अतः वे पर-समय हैं। जिनेन्द्र भगवान के यद्यपि योग के कारण सातावेदनीयकर्म का ईर्यापथास्रव हो रहा है तथापि समस्त घातियाकर्मों का नाश हो जाने से स्वाभाविक केवलज्ञान, क्षायिकसम्यक्त्व व क्षायिकचारित्र व्यक्त हो गये हैं, इसलिये जिनस्वभाव में स्थित होने से स्व-समय हैं।
जै.ग. 10-9-64/IX/जयप्रकाश
जीवतत्त्व व जीवद्रव्य में अन्तर
शंका-जीवतत्त्व और जीवद्रव्य में क्या अन्तर है? तत्त्व और द्रव्य का अलग-अलग लक्षण करते हए दोनों का अन्तर समझाइये।
समाधान-'तत्त्व' शब्द भावसामान्य वाचक है, क्योंकि 'तत्' यह सर्वनामपद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ में रहता है अतः उसका भाव तत्त्व कहलाया। ( सर्वार्थ सिद्धि अध्याय १ सूत्र २) । 'द्रव्य' शब्द में 'द्रव'
१., २. ये दोनों गाथाएं डॉ0 देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित रयणसार में गाथांक ११८-२९ पर हैं।
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